SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२ षयधवलासहिदे कसायपाहुडे णाणावरणीयादीणि केसु दिदि-अणुभागेसु सेसाणि, केत्तियं ठिदिअणुभागसंतकम्मं घादिय केत्तियेसु दिदि-अणुभागभेदेसु परिसेसिदाणि त्ति वुत्तं होइ। एदेण ट्ठिदि-अणुभागसंतकम्मपमाणविसया पुच्छा णिहिट्ठा बटुव्वा। ___'बज्झमाणाणविण्णाणि' एदेण वि सुत्तावयवेण बज्झमाणाणि कम्माणि उदिण्णाणि च कम्माणि केसु दिदि-अणुभागेसु वटुंति ति दिदि-अणुभागबंधविसय-टिदि-अणुभागोदयविसया च पुच्छा णिहिट्ठा त्ति दटुव्वा । तदो तिण्हमेदासि पुच्छाणं णिण्णयविहाणटमेसा मूलगाहा समोइण्णा त्ति एसो एत्य सुत्तत्यसमुच्चओ। संपहि एदिस्से मूलगाहाए पुच्छामेत्तेण सूचिदत्यविहासण?मेंत्य दो भासगाहाओ होति त्ति जाणावणटुमिदमाह * एदिस्से दो भासगाहाओ। ६५८७. ठिदि-अणुभागसंतावहारणे पढमा भासगाहा, तेसिं चेव बंधावहारणे विदिया भासगाहा ति एवमेत्थ दो चेव भासगाहाओ होति । तदिये अत्थे टिदि-अणुभागोदयपरूवणप्पये तदिया भासगाहा एत्थ किण्णोवइट्ठा त्ति णासंकणिज्ज, बंध-संतपरूवणावो चेव उदयपरूवणा वि जाणिज्जदि ति अहिप्पायेण तप्पडिबद्धगाहंतराणवएसादो। एवमेत्थ दोण्हं भासगाहाणमत्थित्तं जाणाविय संपहि जहाकममेव तासि समुक्कित्तणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह पुठवबद्धाणि' ऐसा कहनेपर उस समय पूर्वबद्ध ज्ञानावरणादि कर्म किन स्थितियोंमें और अनुभागों में शेष रहते हैं अर्थात् कितने स्थिति और अनुभागसत्कर्मका घात करके कितने स्थिति और अनुभागोंमें परिशेष रहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस सूत्रवचन द्वारा स्थिति जोर अनुभागसत्कर्मकी प्रमाणविषयक पृच्छा निर्दिष्ट की गयो जाननी चाहिए। 'बज्झमाणाणुदिण्णाणि' इस गाथासूत्रके अन्तिम पाद द्वारा भो बंधनेवाले कर्म और उदीर्ण. कर्म किन स्थितियों और अनुभागोंमें रहते हैं इस प्रकार स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धविषयक तथा स्थितिउदय और अनुभागउदयविषयक पृच्छा निर्दिष्ट की गयी जाननी चाहिए। इसलिए इन तीनों पृच्छाओंका निर्णय करने के लिए यह मूलगाथा अवतीर्ण हुई है, इस प्रकार यहाँपर इस सूत्रगाथाका यह समुच्चयरूप अर्थ है। अब इस मूलगाथाके पृच्छा मात्रसे सूचित हुए अर्थको विभाषा करनेके लिए यहाँपर दो भाष्यगाथाएं हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस वचनको कहते हैं * इस नौवीं मूल सूत्रगाथाको दो भाष्यगाथाएं हैं। ६५८७. स्थिति और अनुभागसत्कर्मके अवधारण करने में प्रथम भाष्यगाथा है तथा उन्हींके बन्धके अवधारण करनेमें दूसरी भाष्यगाथा है इस प्रकार प्रकृतमें दो ही भाष्यगाथाएं हैं। शंका-स्थिति और अनुभागके उदयको प्ररूपणा जिसमें मुख्यरूपसे की गयी है ऐसे तीसरे अर्थमें तीसरी भाष्यगाथा यहाँपर क्यों नहीं उपदिष्ट की गयी है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्थिति और अनुभागसम्बन्धी बन्ध और सत्त्वका प्ररूपण करनेसे ही उदयप्ररूपणाका भी ज्ञान हो जाता है इस अभिप्रायसे उदयसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्य गाथाका उपदेश नहीं किया है । इस प्रकार यहाँपर दोनों भाष्यगाथाओंके अस्तित्वका ज्ञान कराकर अब यथाक्रमसे हो उनको समुत्कीर्तना करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy