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________________ खवगसेढोए णवमीए मूलगाहाए पढमभासगाहा * तासि समुत्तिणा । ६५८८. सुगमं । (१५२) किट्टीकदम्मि कम्मे णामागोदाणि वेदणीयं च । वस्से असंखेज्जे से सगा होंति संखेज्जा ॥२०५॥ २३३ ५८९. एसा पढमभासगाहा किट्टोवेदगपढमसमए सत्तण्हं कम्माणं द्विदिसंतकम्मपमाणावहारणमोइण्णा । अणुभागसंतकम्मपमाणावहारणं पि देसामा सयभावेणेत्थेव पडिबद्धमिदि घेत्तव्यं । संपहि एदिस्से अवयवत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा- 'किट्टीकदम्मि कम्मे० ' एवं भणिदे पुव्वमकिट्टीसरूवे किट्टीभावेण णिरवसेसं परिणमिदम्मि मोहणीयाणुभागसंतकम्मे तदवत्थाए वट्टमाणस्स पढमसमय किट्टीवेदगस्स णामागोदाणि वेदणीयं च असंखेज्जेसु वस्सेसु संतकम्मसरूवेसु घाविदावसेसेसु व ंति त्ति सुत्तत्थसंबंधो। 'सेसगा होंति संखेज्जा' एवं भणिदे सेसाणि घादिकम्माणि संखेज्जवस्सावच्छिण्ण द्विदिसंतकम्मपमाणाणि दट्ठव्वाणि त्ति वृत्तं होइ । सव्वाणि च कम्माणि अनंतेसु अणुभागेसु समयाविरोहेण वट्टेति त्ति अणुसिद्धीदो अणुभाग संतकम्मणिद्देसो एत्थेव सुते णिलोगों वक्खाणेयव्वो । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अवयवत्थं फुडोकरेमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेइ * विहासा । * अब उन दोनों भाष्यगाथाओं की समुत्कीर्तना करते हैं । ६५८८. यह सूत्र सुगम है । (१५२) मोहनीयकर्मके कृष्टिरूप किये जानेके बाद कृष्टिवेदक के प्रथम समय में नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म असंख्यात वर्षप्रमाण सत्कर्म स्थितिरूप पाये जाते हैं तथा शेष कर्म संख्यात वर्षप्रमाण सत्कर्मस्थितिरूप पाये जाते हैं ॥ २०५ ॥ ५८९. यह प्रथम भाष्यगाथा कृष्टिवेदकके प्रथम समय में सात कर्मोके स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । अनुभागसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण भी देशामक रूप से इसी भाष्यगाथा में प्रतिबद्ध है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब इसके अवयवार्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह जैसे -' - 'किट्टीकदम्मि कम्मे' ऐसा कहनेपर पहले जो कर्म अकृष्टिस्वरूप है उसके कृष्टिरूप से पूरा परिणत होनेपर मोहनीय कर्मसम्बन्धी अनुभागसत्कर्मके उस अवस्था में विद्यमान प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदक के नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म घात करनेके बाद असंख्यात वर्ष स्थितिसत्कर्मरूप शेष रहते हैं यह इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है । 'सेसगा होंति संखेज्जा' ऐसा कहने पर शेष चार घातिकर्म संख्यात वर्षरूप स्थितिसत्कर्मप्रमाण जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और सभी कर्म समयके अविरोधपूर्वक अनन्त अनुभागों में रहते हैं । यह अनुक्तसिद्ध होनेसे अनुभागसत्कर्मका निर्देश इसी सूत्र में गर्भित है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए | अब इस भाष्यगाथाके इस प्रकारके अवयवार्थका स्पष्टीकरण करनेवाले आगे के विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं अब इस प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं ।। ३०
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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