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________________ १७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६४६१. देसामासयभावेण एगसमयपबद्धसेसगमहिकिच्च विहासासुत्तमेदमोइण्णं। तं कथं ? एगसमयपबद्धसेसयं सेसासेसद्धिविपरिहारेण एक्कम्मि चेव द्विदिविसेसे होदूण कदाइमुवलब्भइ, दोसु विटिदिविसेसेसु होदूण लम्भइ। एवं तिण्णि-वत्तारिमादिकमेण एगादिएगुत्तरपरिवड्ढोए गंतूण उक्कस्सेण विदिदिदीए सव्वासु द्विदीसु वासपुधत्तपमाणासु होदूण णिरुद्धसमयपबद्धसेसयमुव. लग्भदे । ण केवलं विवियट्टिवीए चेव सव्वासु द्विवीसु, किंतु अण्णवरसंजलणस्स पढमट्टिदीए च समयाहियउदयावलियमेत्तोओ द्विदीओ मोत्तूण सेसासु सव्वासु चेव द्विवीसु णिरुद्धसमयपबद्धसेसयमवचिदि । कि पुण कारणं समयाहियउदयावलियाए परिवज्जणमेत्थ कोरदि ति वुत्ते वुच्चदे-ण ताव उददिदीए समयपबद्धसेसयस्स संभवो, से काले उदये णिल्लेविज्जमाणसरुवस्स तस्स वट्टमाणउददिदीए तक्कालमेव णिल्लेविज्जमाणसरुवाए संभवविरोहादो। णोदयावलिय. बाहिरेयट्रिदीए वि तस्सावट्ठाणसंभवों अस्थि, तत्थतणपदेसग्सस्स से काले णियमा उदयावलियं पविसमाणस्स तदवत्थाए ओकाडुयूणुदये संछोहणासंभवादो । एवमुदयावलियम्भंतरसेसट्टिदोसु वि तदसंभवणियमो बटुव्वो। ६४६२. गरि उपढिवीवो जा अणंतरविदियट्टिवी तिस्से समयपबढसेसस्स संभवो अस्थि, से काले उदयभावेण णियमको परिणममाणाए तिस्से समयपबद्धसेसस्स संभवे विरोहाणुव. लंभावो। सुत्ते पुण एरिसो विसेसणिद्देसो न कहो, वाखाणदो चेव तारिसविसेसपडिवत्तो होवि ४६१. देशामर्षकरूपसे एक समयप्रयवशेषको अधिकृत कर यह विभाषासूत्र अवतीर्ण हुआ है। शंका-वह केसे? समाधान-एक समयप्रणवशेष शेष समस्त स्थितियोंका परिहार करके कदाचित् एक ही स्थितिविशेषमें उपलब्ध होता है, दो स्थिातविशेषोंमें भी उपलब्ध होता है। इसी प्रकार तीन, चार बादिके क्रमसे एकको आदि करके एक-एककी वृद्धि द्वारा जाकर उत्कृष्टसे द्वितीय स्थितिसम्बन्धी वर्षपृथक्त्वप्रमाण सब स्थितियों में विवक्षित समयप्रबद्धशेष उपलब्ध होता है। केवल द्वितीय स्थितिसम्बन्धी ही सभी स्थितियों में नहीं उपलब्ध होता है, किन्तु किसी एक संज्वछनकी प्रथम स्थितिसम्बन्धी एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण स्थितियोंको छोड़कर शेष सब स्थितियोंमें विवक्षित समयप्रबद्धशेष अवस्थित रहता है। शंका-यहाँपर एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण स्थितियोंका निषेध करनेका क्या कारण है ? समाधान-ऐसा प्रश्न करनेपर उत्तरस्वरूप कहते हैं-उदयस्थितिमें तो समयप्रबद्धशेषको प्राप्ति सम्भव है नहीं, क्योंकि यह अनन्तर समय में उदय द्वारा निर्लेप्यमानस्वरूप है, अतः उसका उसी समय निर्लेप्यमानस्वरूप वर्तमान उदय स्थिति में सम्भव होने में विरोध आता है। उदयावलिके बाहर प्रथम स्थितिमे भी उसका अवस्थित रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि उस स्थितिमें रहनेवाला प्रदेशज अनन्तर समयमें नियमसे उदयावलिमें प्रवेश करनेवाला है, अतः उस अवस्थामें उसका अपकर्षण होकर उदयमें निक्षिप्त होना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार उदयावलिके भीतर शेष स्थितियोंमें भी उसके असम्भव होनेका नियम जानना चाहिए। ६४६२ इतनी विशेषता है कि उदयस्थितिसे अनन्तर स्थित जो द्वितीय स्थिति है उसमें समयप्रबद्धशेष सम्भव है, क्योकि अनन्तर समयमें उदयरूपसे नियमसे परिणमन करनेवाली उसमें समयप्रबद्धशेषका होना सम्भव है इसम कोई विरोध नही उपलब्ध होता। परन्तु सूत्र में इस प्रकारके
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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