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खवंगसेढीए अट्ठममूलगाहार विदियभासगाहा
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असंखेज्जेसु द्विदिवियप्पेसु चिट्ठति त्ति वत्तव्यं । एदस्स विसेसणिण्ययमुवरिमगाहा सुत्तमस्सियूण कस्साम । तदो एगसमय पबद्ध से सय मेग भवबद्ध से सबं च पहाणं काढूण एगा दिएगुत्तरकमेण ठिदिउत्तरसेढी देण गाहासुत्तेण णिद्दिव्वा ।
$ ४५८. संपहि एवस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाह
* विहासा ।
६ ४५९. सुगमं ।
* तं जहा ।
६ ४६०. सुगमं ।
* समयपबद्धसे सयमेक्कम्मि ट्ठिदिविसेसे दोसु वा तीसु वा एगादिएगुत्तरमुक्कसेण विदियट्ठिदी सव्वासु द्विदोसु पढमट्ठिदीए च समयाहियउदयावलियं मोत्तूण सासु सव्वासु ठिदीसु णाणासमयपबद्ध से साणं णाणेगभवबद्धसेसयाणं च ।
जिनेन्द्रदेव के देखे अनुसार होकर आगे स्थितिउत्तरश्रेणिके द्वारा जाते हुए उत्कृष्टसे भी असंख्यात स्थितिविशेषोंमें अवस्थित रहते हैं ऐसा कथन करना चाहिए। इसलिए एक भवबद्धशेष और एक समयप्रबद्धशेषको प्रधान करके एकसे लेकर एक एक उत्तरके क्रमसे इस गाथासूत्र द्वारा स्थितिउत्तरश्रेणिका निर्देश किया गया है ऐसा जानना चहिए ।
विशेषार्थ — उदयकाल में तदनन्तर समयका एक भवसबन्धी जो कर्मपुंज शेष रहता है वह एक भवबद्धशेष कहलाता है और इसी प्रकार उदयकाल में तदनन्तर समयका एक समयप्रबद्धसम्बन्धी जो कर्मपुंज शेष रहता है वह एक समयप्रबद्धशेष कहलाता है । ये दोनों जघन्यसे एक स्थितिसम्बन्धी शेष हो सकते हैं और अधिक से अधिक असंख्यात स्थितिसम्बन्धी भी शेष हो सकते हैं । किन्तु एकसे अधिक भवोंमें बद्ध जो कर्मपुंज शेष रहता है और इसी प्रकार एकसे अधिक समयों में बद्ध जो कर्मपुंज उदयकालके तदनन्तर स्थिति में शेष रहता है वह नियमसे असंख्यात स्थितिविशेषसम्बन्धी होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
६ ४५८. अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं ।
६ ४६९. यह सूत्र सुगम है ।
वह जैसे ।
६ ४६०. यह सूत्र सुगम है ।
* एक समयप्रबद्धशेष एक स्थितिविशेषमें पाया जाता है अथवा दो स्थितिविशेषों में पाया जाता है, अथवा तीन स्थितिविशेषों में पाया जाता है। इस प्रकार एकसे लेकर एक एक उत्तरक्रमसे उत्कृष्टसे द्वितीय स्थितिसम्बन्धी सब स्थितियों में पाया जाता है। तथा प्रथम स्थितिसम्बन्धी एक समय अधिक एक आवलिको छोड़कर शेष सब स्थितियोंमें पाया जाता है । इसी प्रकार नाना समयप्रबद्धशेषोंकी तथा एक भवबद्धशेष और नाना सभवप्रबद्धशेषों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।