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________________ १७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ति पावण?मोइण्णा । तं जहा-'ट्रिवि उत्तरसेढीए एवं भणिदे एगसमयपबद्धसेसयं जहणेण एगटिदिविसेसम्मि होदूण लब्भइ, दोसु वि दिदिविसेसेसु होदूण लब्भइ, तिसु वि दिविविसेसेसु होदूण लब्भइ । एवं. गंतूण संखेज्जेसु असंखेज्जेसु वा ठिदिविसेसेसु होदूण लगभइ। एवमेसा समयुत्तरकमेण ट्रिदिविसेसाणं परिवड्डी टिदिउत्तरसेढी णाम। एवमेगभवबद्धसेसयस्स वि दिदिउत्तरसेढी अणुगंतव्वा। एवं चेव जाणासमयपबद्धसेसयाणं गाणाभवबद्धसेसयाणं च द्विदिउत्तरसेढोए अवट्ठाणं वत्तव्वं । एवमेंदीए द्विदिउत्तरसेढोए गाणेगभवबद्धसमयपबद्धसेसयाणि होति त्ति वुत्तं होइ। ६४५६. संपहि एक्स्सेवत्थस्स फुडीकरणटुं गाहापच्छद्धणिद्देसो-'एगुत्तरमेगावो' एगादिएगुत्तरकमेण जा ठिवीणं परिवड्डी सा ठिविउत्तरसेढो णाम । सा असंखेज्जासंखेजटिदिविसेसपडिबद्धा बटुट्या ति वुत्तं होदि । तवो जहण्णेण एगट्ठिविविसेसे एगसमयपबद्धसेसयं होदूण पुणो समयुत्तरवड्डीए गंतूण उक्कस्सदो' असंखेज्जेसु टिदिविसेसेसु एगसमयपबद्धसेसयमवट्ठाणं लहदि । एवमेगभवबद्धसेसयस्स वि एगादिएगुत्तरवडिदेसु असंखेज्जेसु टिदिविसेसेसु अवट्ठाणसंभवो बटुव्वो त्ति एसो एक्स्स भावत्थो। ६४१७. एवं चेव णाणासमयपबद्धभवबद्धसेसयाणं पि द्विविउत्तरसेढीए असंखेज्जेसु दिदिवियप्पेसु अवट्ठाणक्कमो अणुगंतव्यो । णवरि जाणाभवसमयपबद्धसेसयाणि जहण्णो वि असंखेज्जेसु टिदिविसेसेसु जिणविट्ठभावेण होदूण तदो ट्ठिविउत्तरसेढोए गंतूण उक्कस्सेण वि उत्कृष्टरूपसे इतने स्थितिविशेषोंमें होते हैं इस बातका प्ररूपण करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे-'दिदि उत्तर-सेढोए' ऐसा कहनेपर एक समयप्रबद्धशेष जघन्यसे एक स्थितिविशेष में प्राप्त होता है, दो स्थिति-विशेषों में प्राप्त होता है, तीन स्थितिविशेषोंमें भी प्राप्त होता है। इस प्रकार जाकर संख्यात और असंख्यात स्थितिविशेषोंमें प्राप्त होता है। इस प्रकार यह समयोत्तरके क्रमसे स्थितिविशेषोंकी परिवृद्धिका नाम स्थिति उत्तरश्रेणि है। इस प्रकार एक भवबद्धशेषकी भी स्थिति उत्तरश्रेणि जाननी चाहिए । तथा इसी प्रकार नाना समयप्रबद्धशेषों और नाना भवबद्धशेषोंका स्थितिउत्तर-श्रेणिमें अवस्थान कहना चाहिए । इस प्रकार इस स्थिति उत्तरश्रेणिमें नाना और एक भवबद्धशेष तथा नाना और एक समयप्रबद्ध शेष होते हैं यह उक्त कथनका तासर्य है। ६४५६. अब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए गाथाके उत्तरार्धका निर्देश हमा है'एगत्तरमेगादी' अर्थात् एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे जो स्थितियोंकी वृद्धि होती है उसका नाम स्थिति उत्तरश्रेणि है । उसे असंख्यातासंख्यात स्थितिविशेषोंसे सम्बद्ध जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए जघन्यसे एक स्थितिविशेषमें एक समयप्रबद्धशेष होकर पुनः एक एक समयकी वृद्धिके क्रमसे जाकर उत्कृष्टसे असंख्यात स्थितिविशेषोंमें एक समयप्रबद्धशेषका अवस्थान प्राप्त होता है। इसी प्रकार एक भवबद्धशेषका भी एकसे लेकर एक-एक अधिक के क्रमसे असंख्यात स्थितिविशेषों में अवस्थान सम्भव है ऐसा जानना चाहिए, इस प्रकार यह इसका भावार्थ है। ६४५७. तथा इसी प्रकार नाना समयप्रबद्धशष और नाना भवबद्धशेषोंका भी स्थिति उत्तरपिके द्वारा असंख्यात स्थितिविशेषोंमें अवस्थानका क्रम जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नाना भवबद्धशेष और नाना समयप्रबद्धशेष जघन्यसे भी असंख्यात स्थितिविशेषोंमें
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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