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________________ खवगसेढीए अट्ठमूलगाहाए विदियभासगाहा ६४५१. एवमेत्तिएण पबंधेण भासगाहापुव्वद्धं विहासिप संपहि गाहापच्छद्धविहासणट्ठः मुत्तरसुत्तमाह *णियमा अणतेसु अणुभागेसु भववद्धसेसगं वा समयपबद्धसे सगं वा । ६४५२. कुदो ? एक्कम्मि वि परमाणम्मि सेसभावेणोवलम्भमाणे तत्थाणताणमविभाग. पडिच्छेदाणमणुभागसण्णिदाणमवलंभादो। तदो वग्गणाओ फद्दयाणि किट्टोमो वा अस्सियूण णेदं भणिदं, किंतु सामण्णेण रसविसेसं पेक्खियूण भणिदमिदि बटुव्वं, अण्णहा एगपरमाणुम्मि सेसभावेण वट्टमाणे पयदणियमस्साणुववत्तीदो। एवमेत्तिएण पबंधेण पढमभासगाहाए अत्यविहासणं समाणिय संपहि विदियभासगाहाए अत्यविहासणं कुणमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेह * एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा। ६४५३. सुगम। * तं जहा। ३४५४. सुगमं । (१४८) द्विदिउचरसेढीए मवसेससमयपबदसेसाणि । एगुचरमेगादी उचरसेढी असंखेज्जा ॥२०१॥ १५. एसा विनियमासगाहा मूलगाहाए पुगपछतु परिबरपुच्छाओ अस्सिपूण मानसमयपबद्धसेसयाणि भवनडसेमयानि महणुकस्सेण एसियमेत द्विविविसेसेसु होति १५१. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा भाष्यगाथाके पूर्वाधकी विभाषा करके अब उक्त भाष्यगाथाके उत्तरार्धकी विभाषा करने के लिए भागेके सूत्रको कहते है-- *ये भवववशेष और समयप्रबशेष नियमसे मनन्त अनुभागोंमें पाये जाते हैं। ४५२. क्योंकि शेषरूपसे उपलभ्यमान एक भी परमाणुमें वहाँ अनुभाग संज्ञावाले अनन्त अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। अतः यह वर्गणामों, स्पर्धको मोर कष्टियोंकी अपेक्षासे नहीं कहा गया है, किन्तु सामान्यसे रसविशेषको देखते हुए कहा गया है ऐसा यहाँ जानना चाहिए, अन्यथा शेषरूपसे विद्यमान परमाणुमें प्रकृत नियम नहीं बन सकता। इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा प्रथम भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा समाप्त करके अब दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करते हुए मागेके विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं * इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाको समत्कीर्तना करते हैं। ६४५३. यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६४५४. यह सूत्र सुगम है। (१४८) जो एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे असंख्यात स्थितिविशेषोंकी वृद्धिरूप उत्तरणि है उप्त स्थितिउत्तरणिमें भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष पाये जाते हैं ॥२३॥ ६४५५. यह दूसरी भाष्यगाथा मूलगाथाके पूर्वार्ध और उत्तरार्धमें प्रतिबद्ध पुच्छामोंका साश्रय लेकर नाना समयप्रबशेष, एक समयप्रबद्धशेष बोर नाना तथा एक भवबद्धशेष षषन्य और २२
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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