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________________ २८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वेदगचरिमसमये जादो त्ति वुत्तं होदि । एत्थ दिदिबंधपरिहाणिपमाणमंतीमुहत्ताहियवसदिवसमेत्तं तेरासियकमेण साहेयव्वं । जइ एवं, दसदिवसमेती चेव टिदिबंधपरिहाणो होदु, अंतोमुहत्ताहियत्त. मेत्थ कत्तो समुवलद्धमिदि णासंकणिज्ज, अद्धाविसेसमस्सियूण तदुवलद्धीए विरोहाभावादो। * संतकम्मं तिण्णि वस्साणि चत्तारि मासा च अंतोमुहुत्तणा । ६७२२. कोहवेदगचरिमसंधीए चत्तारि वस्समेत्तं संजलणाणं द्विदिसंतकम्मं जादं, तत्तो जहाकममतोमुहत्ताहियअट्टमासमेतदिदिसंतपरिहाणोए जादाओ अंतोमहत्तूणचत्तारिमाससमहियाणि तिण्णि वस्साणि तिण्हं संजलणाणं टिदिसंतकम्ममेण्डिं संजादमिदि एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्यो। एवमेदीए परूवणाए माणपढमसंगहकिट्टीवेदगद्धमणुपालिय पुणो जहावसरपत्ताए माणविवियसंगहकिट्टीए पढमट्टिदिसमुप्पायणपुरस्सरं वेदगभावेण परिणमदि ति परूवणट्ठमुवरिमो सुत्तपबंधो * से काले माणस्स विदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमद्विदि करेदि । ६७२३. सुगर्म । णवरि उदयादिगुणसेढिसरूवेण पढमदिदिमेसो णिक्खिवमाणो सगवेवगकालादो आवलियब्भहियं कादूण पढमट्ठिदिविण्णासं कुणदि ति घेत्तव्वं । * तेणेव विहिणा संपत्तो माणस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से समयाहियावलियसेसा ति । अधिक एक माहप्रमाण मानसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदन करनेके अन्तिम समयमें हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर स्थितिबन्धकी हानिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त अधिक दस दिन मात्र त्रैराशिक क्रमसे साथ लेना चाहिए। शंका-यदि ऐसा है तो अन्तर्मुहूर्त अधिक यहांपर किस कारणसे उपलब्ध होता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए क्योंकि कालविशेषका आश्रय लेकर उसकी उपलब्धि होनेमें विरोध नहीं पाया जाता।। * उन कर्मोका सत्कर्म तीन वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार माहप्रमाण होता है। ६७२२. क्रोधवेदकको अन्तिम सन्धिमें संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म चार वर्षप्रमाण था, उससे यथाक्रम अन्तर्मुहुर्त अधिक आठ माह स्थितिसत्कर्मको हानि होनेपर अन्तर्मुहूते कम चार माह अधिक तीन वर्ष तीन संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म इस समय हो गया है यह इस सूत्रका भावार्थ है। इस प्रकार इस प्ररूपणा द्वारा मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदक कालका पालन करके पुनः यथावसर प्राप्त मानकी द्वितीय संग्रहकृष्टिको प्रथम स्थितिके उत्पादनपूर्वक वेदकरूपसे क्षपक जीव परिणमता है इस बातका कथन करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * तदनन्तर समयमें मानको द्वितीय कृष्टिमेंसे प्रवेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति को करता है। ६७२३. यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि उदयादि गुणश्रेणीरूपसे प्रथम स्थितिकी यह क्षपक जीव रचना करता हुआ अपने वेदककालसे एक आवलि अधिक करके प्रथम स्थितिकी रचना करता है। * उसी विधिसे मानकी दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकको जो मानकी प्रथम स्थिति है उसमें एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष प्राप्त होता है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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