SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे फद्दयचमिवग्गणाति । एवं णोदे जत्थ जत्थ अंतरं भवदि तत्थ तत्थ अंतरस्स हेट्ठा फद्दयमिदि गवं । तदो एवंविहो अणुभागविण्णासविसेसो फद्दय लक्खण मिवि घेत्तव्वं । ६० संह कीलक्ख भण्णमाणे जहण्ण किट्टीए सरिसघणियअनंतपरमाणू हितो बिदिय कट्टीए विभागलिच्छेदुत्तरा होदूण ट्ठिदा कम्मपरमाणवी णत्थि नियमा अनंतगुणाविभागपडिच्छेवसात्तसंजुत्ता होणच्छति । एवं चेव बिदियकिट्टिसरिसधणिय सव्वा विभागपडिच्छेदपुंजादो तदिकिट्टीए सरिसधणिय सव्वा विभागपडच्छेदपुंजो णियमा अनंतगुणो चेव होदूण चिट्ठदि । पुणो वि अनंतराणंतरावो एवं चेत्र होदूग गच्छवि जाव कोथुक्कस्स किट्टि त्ति । एवमविभागपडिच्छे दुत्तरकनवड्डीए वाणियमा अनंत गुणसरूवेण जमत्रद्वाणं तं किट्टीए लक्खणमिदि धेत्तव्वं । प्रकार लाते समय जहाँ-जहाँ अन्तर प्राप्त होता है वहाँ-वहाँ अन्तरके पूर्वतक स्पर्धक ग्रहण करना चाहिए। इसलिए इस प्रकारका जो अनुभागका विन्यास विशेष होता है वह स्पर्धकका लक्षण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ - प्रकृत में स्पर्धक के लक्षणपर प्रकाश डालते हुए जो स्पष्टीकरण किया है उसका आशय यह है - पहले ऐसे अनन्त परमाणु को जिनमें से प्रत्येक परमाणुमें सबसे जघन्य अविभागप्रतिच्छेदोंसे परिणत सदृश अनुभागशक्ति पायो जावे इसका नाम एक वर्गणा है और प्रत्येक परमाणु का नाम वर्ग है। यह सबसे जघन्य शक्तिसे युक्त प्रथम वर्गेणा है । पुनः जिसमें एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंसे परिणत प्रत्येक परमाणु हो ऐसे अनन्त परमाणु के समुदायरूप दूसरो वर्गणा होती है । मात्र इस वर्गणा में पूर्वको वर्गणासे एक वर्गेणाविशेषमात्र परमाणु होन पाये जाते हैं। इस प्रकार इस विविसे अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणाएं जिसमें होतो हैं उसे एक स्पर्धक कहते हैं। इसी प्रकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा अन्तर देकर इसी क्रम से दूसरा स्पर्धक प्राप्त कर लेना चाहिए। मात्र प्रथम स्पर्धकको आदि वर्गणा में जितने अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं उनसे दूसरे स्पर्धकको आदि वर्गणा में दूने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। तथा 'आगे भी यहो क्रम जान लेना चाहिए। अब कृष्टिका लक्षण कहने पर जघन्य कृष्टिके सदृश धनवाले अनन्त परमाणुओंसे दूसरी कृष्टिमें एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंसे युक्त कर्म परमाणु नहीं होते, किन्तु नियमसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदरूप शक्ति से संयुक्त परमाणु होते हैं । इसा प्रकार दूसरी कृष्टिक सदृश धनवाले सब अविभागप्रतिच्छेद पुंजसे तासरो कृष्टिर्म सदृश घनवाले सब अविभागप्रतिच्छदों का पुंज नियमसे अनन्तगुणा होकर हो अवस्थित है। इसके आगे भो क्रोधको उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक आगे-आगे इसी प्रकार होकर सब कृष्टियां प्राप्त होती हैं। इस प्रकार एक अधिक आवभाग प्रतिच्छेदको क्रम वृद्धिके विना जिनमें नियमसे अनन्तगुणे के क्रमसे अविभागप्रतिच्छेदों का सद्भाव पाया जाता है वह कृष्टिका लक्षण है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ - एक स्पर्धकको जितनी वर्गणाएँ होती हैं उनको प्रत्येक वर्गणा में उत्तरोत्तर एकएक अधिक प्रतिच्छेदों के समुदायरूप परमाणुपुंज पाया जाता है। जब कि कृष्टियों को यह स्थिति नहीं है । किन्तु लोभ संज्वलनको जो जघन्य कृष्टि है उसके प्रत्येक परमाणुमें जितने अविभागप्रतिच्छेदरूप अनुभागशक्ति होतो है उससे दूसरी कृष्टि के प्रत्येक परमाणु अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद रूप अनुभागशक्ति होती है। यह क्रम लोभ, माया, मान और क्रोधक क्रमसे क्रोधको उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक समझ लेना चाहिए । यही स्पर्धक मोर कृष्टिके लक्षण में अन्तर है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy