SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खवगसेढीए पढममूलगाहाए तदियभासगाहा ६१ १५७. संपहि एवंविहमेदिस्से तदियभासगाहाए अत्थं विहासेमाणो उवरिम विहासा गंथमाह* विहासा । $ १५८. सुगमं । * लोभस्स जहण्णिया किट्टी अणुभागेहि थोवा । विदियकिट्टी अणुभागेहिं अनंतगुणा । तदिया किट्टी अणुभागेहि अनंतगुणा । एवमणंतराणंतरेण सव्वत्थ अनंतगुणा जाव कोधस्स चरिमकिट्टिति । $ १५९. कुदो एवं ? किट्टीगदाणुभागस्स पुण्वाणुपुथ्वीए अनंतगुणर्वाड मोत्तूण पयारंतरासंभवादो | संपहि किट्टी गहाणुभागस्स सत्याणे अनंतगुणवडिदस्स वि फछ्याणुभागं पेक्खियूणाणंतगुणहीणत्तमेवेत्ति इममत्थविसेसं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * उक्कस्सिया व किट्टी आदिफदय आदिवग्गणाए अनंतभागो । $ १६०. सक्कस्सिया वि कोहसंजलणचरिम किट्टी अविभागपडिच्छेदेहि अपुठवफद्दयाविवग्गणाए अनंतभागमेत्तो चेव होदि । तत्तो अनंतगुणहाणीए परिणमिदून किट्टीगदाणुभागस्सावाणियम दंसणा दो । तदो चेव एदास किट्टीसण्णा वि अत्थाणुगया वटुग्वा त्ति जाणावणटुमुत्तरसुत्तं भइ १५७. अब इस प्रकार इस तीसरी भाष्यगाथा के अर्थका स्पष्टीकरण करके आगे के विभाषाग्रन्थको कहते हैं * अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । $ १५८. यह सूत्र सुगम है । * लोभ संज्वलनकी जघन्य कृष्टि अनुभागको अपेक्षा सबसे कम है। दूसरी कृष्टि अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी है। तीसरी कृष्टि अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी है। इस प्रकार क्रोध संज्वलनकी उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक सर्वत्र कृष्टियाँ अनन्तर अनन्तररूपसे अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी होती हुई चली गयी हैं । $ १५९. शंका - ऐसा किस कारणसे है । समाधान - क्योंकि कृष्टियोंके अनुभाग में पूर्वानुपूर्वी से अनन्तगुणी वृद्धिको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । इस प्रकार यद्यपि कृष्टियों का अनुभाग स्वस्थानमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणी वृद्धिरूप होकर अवस्थित तो भी स्पर्धक में रहनेवाले अनुभागको देखते हुए कृष्टिगत अनुभाग अनन्तगुणा हीन ही है इस प्रकार इस अर्थ विशेषका ज्ञान कराते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं— * किन्तु संज्वलन क्रोधकी उत्कृष्ट भी कृष्टि प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा के अनुभागकी अपेक्षा अनन्तवें भागप्रमाण है । $ १६०. संज्वलन क्रोधकी सबसे उत्कृष्ट अन्तिम कृष्टि भी अविभागप्रतिच्छेदोंको अपेक्षा अपूर्व स्वर्धककी प्रथम वर्गणा के अनन्तवें भागप्रमाण ही होती है। यही कारण है कि कृष्टिगत अनुभाग अनन्त गुणहानिरूपसे परिणत होकर अवस्थित है ऐसा नियम देखा जाता है । और इसीलिए इसकी कृष्टि संज्ञा भी अर्थानुगत- सार्थक जाननी चाहिए इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगे सूत्र को कहते हैं
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy