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________________ १२. जयपवलासहिदे कसायपाहुडे एस्थ तिरिक्ख-मणुसगविसंचयस्स धुवभावं कादूण सेसदोगदिसंचयाणमेगदुसंजोगेण तिण्णि भंगा समुप्पाएयव्वा । षुवपदेण सह चत्तारि भंगा ४। ६ ३२१. एवमेवं विहासिय संपहि 'एइंदिय-कायेसु च पंचसु भज्जा' ति इमं सुत्तावयवं विहासेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ __* पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय वाउकाइय-वणप्फदिकाइएसु तत्तो एकेकेण कारण समज्जिदं भजियव्वं । ६३२२. एदेस पंचस थावरकाएसु एकक्केण कारण समज्जिवं कम्ममेदस्स खवगस्स सिया अस्थि, सिया गस्थि त्ति वुत्तं होदि । एतो 'एक्केक्केण कारणेत्ति विसेसणं पादेक्कमेदेसि कायाणं णिरंभणं कादूण भयणिज्जत्तमेदं जोजेयम्वमिदि पदुप्पायणफलं, समुदायप्पणाए तत्थतणसंचयस्त अण्णदरकायसंबंधेण खवगम्मि अवस्तंभाविणियमदंसणादो। तम्हा एक्केक्कं थावरकायमहिकिच्च तत्थतणसंचयस्स भयणिज्जत्तमेवमणुगंतव्वं । तं जहा-- ६३२३. अप्पिदकायादो णिप्फिडियूण जाव कम्मदिदी समप्पदि ताव सेसकाएस चिट्ठिदूण पुणो मणुस्सेस आगंतूण खवगसेढि चढिदस्स अप्पिदकायम्मि संचिवकम्मपदेस विशेषार्थ-कोई बीव पहले नरकगतिमें था। पुनः वहाँसे निकलकर तिर्यंचगतिमें होता हुआ मनुष्यगतिमें आया । यह एक भंग है । कोई जोव पहले देवगतिमें था। पुनः वहांसे निकलकर तियंचगतिमें होता हुआ मनुष्यगतिमें आया। यह दूसरा भंग है। तथा कोई जीव नरकसे निकलकर तिर्यच या मनुष्य होकर देवपर्याय में उत्पन्न हुआ। पुनः वहाँसे आकर तियंचगतिमें उत्पन्न होकर मनुष्य हो गया। इस प्रकार तियंचगति और मनुष्यगतिको ध्रुव करके नरकगति और देवगतिका अवलम्बन करके उक्त तीन भंग उत्पन्न होते हैं। इन तीन भंगोंमें ध्रव भंगके मिला देनेपर कुल चार भंग होते हैं। ये चारों भंग दोनों अपेक्षाओंसे बन जाते हैं। यह यहाँ विशेष समझना चाहिए। ६३२१. इस प्रकार इसको विभाषा करके अब 'एकन्द्रिय और पांचों कायमार्गणाओंमें संचितकर्म इस क्षपकके भजनीय है' इस सूत्रके अवयवको विभाषा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक इन पांचोंमें से एक-एक कायके द्वारा समजित किया गया कर्म इस क्षपकके भजनीय है। ६३२२. इन पांच स्थावरकायिकोंमेंसे एक-एक कायिक जीवके द्वारा समर्जित कर्म इस क्षपकके स्यात् है और स्यात् नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसपरसे 'एक्केकेण कायेण' यह विशेषण इन कायवाले जीवोंमेंसे प्रत्येकके साथ विवक्षित करके इस भजनीयपने की योजना कर लेनी चाहिए यह उक्त कथनका फल है, क्योंकि समुदायको मुख्यतासे वहां हुए संचयका अन्यतर कायके सम्बन्धसे क्षपक जीवके अवश्य हो पाये जानेरूप नियम देखा जाता है। इसलिए एक-एक स्थावरकायिक जीवको अधिकृत करके वहां हुए संचयको भजनोयता इस प्रकार जाननी चाहिए। वह जैसे ६३२३. विवक्षित कायमेंसे निकलकर जबतक कमंस्थिति समाप्त होती है तबतक शेष कायोंमें रहकर पुनः मनुष्योंमें आकर क्षपकणिपर चढ़े हुए जीवके विवक्षितकायमें संचित हुए
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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