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________________ खवगसेढीए चउत्यमूलगाहाए पढमभासगाहा पुण जत्थ वा तत्थ वा कम्मदिदिमणुपालियूणागवस्स खवगस्स णिच्छएण अत्थि, मणुसपज्जाएगापरिणदस्स खवगसेढिसमारोहणासंभवादो। एवमेवेण सुतेण 'दोसु च गदीसु अभज्जाणि' ति एवं गाहासुत्तावयवं विहासिय संपहि 'बोसु भज्जाणि' ति इमं सुत्तावयवं विहासेमाणो इदमाह * देवगदिसमज्जिदं च णिरयगदिसमज्जिदं च भजियव्वं । $ ३२०. किं कारणं ? देव-णिरयगवीओ अगंतूण तिरिवक्ख-मणुस्सेसु चेव कम्मद्धिविमेत्तकालमच्छिय खवगसेढि चढिरस्त ताव तदुभयगदिसमज्जिदं णियमा गत्यि। जो च देव. गैरइएसु पविसिय तत्थ केत्तियं पि कालमच्छिय पुणो तिरिक्खेसु पविसिय कम्मटिदिमेत्तेण कालेण तत्तो अहिययरकालावटाणेण वा णिरयदेवगविसंचयं जिग्गालिय पुणो मणुसेस आगंतूण खवगसेढिमारुहदि तस्स वि गिरय-देवगदीसु पुश्वबद्धस्स एगो वि परमाणू णत्यि, कम्मट्टिदोवो परं तत्थतणसंचयस्सावटाणविरोडावो। जो पण णिरय-देवगदीओ पविसिय तत्थ केत्तियं पि कालमच्छियूण णिस्सरिदो कम्मदिदिकालभंतरे चेवाविणद्वेण तेण संचएण खवगसेढिं चढदि तस्स णिरयदेवगविसमज्जिवं णियमा अस्थि ति बटुव्वं, अगालिदेणेव तत्थतणसंचएण खवगसेठिमागयत्तावो । तम्हा देव-गिरयगविसंचिवस्स भयणिज्जतं सिद्ध। करके आये हुए क्षपक जीवके निश्चयसे है, क्योंकि मनुष्यपर्यायसे अपरिणत हुए जोवके क्षपकश्रेणिपर आरोहण करना सम्भव नहीं है। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा 'दोसु च गदोसु अमज्जाणि' गाथासूत्रके इस अवयवको विभाषा करके अब 'दोसु मज्जाणि' सूत्रके इस अवयवकी विभाषा करते हुए इस सूत्र को कहते हैं ॐ देवगतिमें अजित हुआ और नरकगतिमें अजित हुआ कर्म इस अपकके भजनीय है। 5३२०. शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि देवगति और नरकगतिमें न जाकर तिर्यच और मनुष्यगतिमें हो कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहकर क्षपकश्रेणिपर बाद हुए जीवके उन दोनों गतियोंमें अर्जित हुआ कर्म नियमसे नहीं पाया जाता। ___ अतः जो जीव देवगति और नरकगतिमें प्रवेश करके और वहाँ कितने ही काल तक रहकर पुनः तियचोंमें प्रवेश करके कर्मस्थितिप्रमाण काल द्वारा या उससे अधिक काल द्वारा नरकगति और देवगतिसम्बन्धी संचयको गलाकर पुनः मनुष्यों में आकर क्षपकणिपर आरोहण करता है उसके भी नरकगति और देवगतिमें संचित हुए पूर्वबद्ध कर्मका एक भी परमाणु इस क्षपकके नहीं पाया जाता, क्योंकि कर्मस्थितिके बाद उसके भीतर हुए संचयका क्षपकके अवस्थान होनेका विरोध है । परन्तु जो जीव नरकगति और देवगतिमें प्रवेश करके वहां कितने ही काल तक रहकर निकला तथा कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर ही अविनष्ट हुए उस संचयके साथ क्षपकणिपर चढ़ता है उसके नरकगति और देवगतिमें संचित हुमा कर्म इस क्षपकके नियमसे होता है ऐसा बानना चाहिए, क्योंकि नरकगति और देवगतिमें जो संचय किया था उसे गलाये बिना ही वह जीव क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ हुआ है। इसलिए देवगति और नगरकगतिमें संचित हुमा कर्म इस क्षपकके भजनीय है यह सिद्ध हआ। यहाँपर तिर्यंचगति और मनुष्यगतिमें हए संचयको ध्रुव करके शेष दो गतियोंमें हुए संचयोंके एकसंयोग और विसंयोगकी अपेक्षा तीन भंग उत्पन्न करने चाहिए । तथा ध्रुवपदके साथ चार भंग होते हैं।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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