SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ जयघवला सहिदे कसायेपाहुडे ६ ३१७. संपहि एवंविहमे विस्से गाहाए अत्थं विहासे माणो उवरिमं विहासागंथमाह* विद्दासा । ३१८. सुगमं । * एदस्त खवगस्स दुर्गादिसमजिदं कम्मं णियमा अस्थि । तं जहा - तिरिक्खगादिसमजिदं च मणुसगदिसमजिदं च । $ ३१९. एक्स्स खवगस्स किट्टीकरण पहूडि उवरिमावत्थाए वट्टमाणस्स दुर्गादिसमज्जिवं कम्मं नियमा अत्थि त्ति एवेण सामण्णणिद्देसेण विसेसनिण्णयो ण जावो त्ति तत्थेव विसेस णिण्णयजण 'तिरिवखगदिस मज्जिवं च मणुसगदिसमज्जिवं च' इवि विसेसिथूण णिद्देसो कदो । कथं पुण 'दोसु गदीसु अभज्जाणि' त्ति एवेण सामण्णणिद्देसेण तिरिक्खमणुसग दिवि से सपज्जाओ जयवित्ति ? ण पञ्चवद्वाणमिह कायभ्यं, वक्खाणवो विसेसपडिवत्ती होवि त्ति णायेण तहाविहविसेस सिद्धीए । तत्थ तिरिक्सगबिसमज्जियं णियमा अस्थि त्ति वुते तिरिक्खेहितो आगंतूण मणुस्सेसु चैव समुप्पज्जिय खवगसेढिमारूढस्स ताव तिरिखखगदि संचओ णिच्छएण लब्भवे । जो पुण तिरिक्खगवीदो णिस्सरिखूण सेसगवीसु सागरोवमसदपुधत्तमेत्तकालमच्छिप खवगसे टिमारुहवि तस्स वि तिरिखखगविसंचिवं णियमा अत्थि, सागरोवमसवपुषत्तमेत्तकालगभंत रे तिरिवखगदिस मज्जिवस्स कम्मट्ठिविसंचयस्स सुद्ध णिल्लेवणाणुवलंभावो । मणुसगविसमज्जिवं ६ ३१७. अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थ की विभाषा करते हुए आगे के विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब इसकी विभाषा करते हैं । ६३१८. यह सूत्र सुगम है । * इस क्षपकके दो गतियोंमें अर्जित किया हुआ कर्म नियमसे है । वह जैसे -तियंचगतिमें अर्जित किया गया कर्म भी है और मनुष्य गतिमें अर्जित किया गया कर्म भी है । ६ ३१९. कृष्टिकरणसे लेकर उपरिम अवस्थामें विद्यमान इस जीवके दो गतियों में अर्जित किया हुआ कर्म नियमसे है। इस प्रकार ऐसा सामान्य निर्देश करनेसे विशेषका निर्णय नहीं होता इसलिए वहीं पर विशेषका निर्णय करनेके लिए 'तियंचगति में अर्जित किया गया कर्म भी है और मनुष्यगति में अर्जित किया गया कर्म भी है' ऐसा विशेषरूपसे निर्देश किया है । शंका- 'दो गतियों में अर्जित किया गया कर्म इस क्षपकके भजनीय नहीं है' इस प्रकार गाथा द्वारा ऐसा सामान्य निर्देश करनेसे तियंचगति और मनुष्यगति विशेष पर्यायका ग्रहण कैसे होता है ? समाधान- यहाँ ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि व्याख्यान से विशेषका ज्ञान होता है इस न्यायके अनुसार उस प्रकारके विशेषको सिद्धि होती है । वहीं तिर्यंचगतिमें समजित किया गया कर्म नियमसे है ऐसा कहनेपर तियंचगति से आकर मनुष्यगति में हो उसन्न होकर क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके तियंचगतिमें संचित हुआ कर्म निश्चय से प्राप्त होता है । परन्तु जो तिर्यंचगति से निकलकर शेष गतियोंमें सो पृथक्त्व सागरोपम काल तक रहकर क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उसके भी तियंचगतिमें अर्जित किया गया कर्म इस क्षपकके नियमसे है, क्योंकि तियंचगति में अर्जित होकर कर्मस्थिति में हुए संचयका पूरी तरह से निर्लेपन नहीं होता । परन्तु मनुष्यगति में संचित हुआ कर्म जिस किसी गति में कर्मस्थितिका पालन
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy