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________________ खवगसेढीए चउत्थमूलगाहाए पढमभासगाहा $ ३१६. एत्थ जाणि भयणिज्जपदाणि तेसिमेक्को वि सवेसु च द्विदिविसेसेस महोदूग लब्भइ, तेसिमसंभवपक्खे पक्खे पुण सिया एक्को परमाणू सिया दो परमाणू एवं गंतूण सम्वासि किट्टीणं सरिसघणिएस सव्वेसु च द्विदिविसेसेसु होदूण लब्भंति । जाणि पुण ण भयणिज्जाणि पुण्वबद्धाणि तेसिमणंता पदेसा सव्वासु द्विदीस सव्वास किट्टीणं सरिसघणियसहवा होदूग णियमा लब्भंति त्ति एवं भयणिज्जा भयाणजणामत्यपदं सम्वत्थ जोजेपव्वं । ११७ परमाणू सव्वासु किट्टीसु तदविरोहादो । संभव उक्करसेणाणंता परमाणू ६ ३१६. यहाँ प्रकृत में जिन मार्गणाओंके पूर्वबद्ध कर्म इस जीवके भजनीय कहे हैं उनका एक भी परमाणु सभो कृष्टियों और उनके स्थितिविशेषों में नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि उनकी असम्भावनारूप पक्षके स्त्रीकार करने में कोई विरोध नहीं आता । सम्भव पक्ष में तो किसी क्षपकके एक परमाणु पाया जाता है, किसी क्षपकके दो परमाणु पाये जाते हैं। इस प्रकार जाकर सभी कृष्टियोंके सदृश धनवाले सभी स्थितिविशेषों में उत्कृष्टरूपसे अनन्त परमाणु होकर प्राप्त होते हैं। परन्तु जो पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय नहीं हैं उनके अनन्त परमाणु सभी कृष्टियोंकी सभी स्थितियों में सदृश धनरूपसे होकर इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। यह भजनीय और अभजनीय पूर्वबद्ध कर्मोंका अर्थपद सर्वत्र योजित कर लेना चाहिए । विशेषार्थ - प्रकृत में कृष्टिकारक और कृष्टिवेदक क्षपक जीवके किन गति आदि मार्गणाओं सम्बन्धीभवों में बाँधे हुए चारित्रमोहनीय आदि कर्म नियमसे पाये जाते हैं और किन गति आदि मागंणामसम्बन्धी भव में बांधे हुए कर्म पाये भो जाते हैं और नहीं भो पाये जाते हैं इस तथ्य का सांगोपांग विचार किया गया है। यह विचार करते हुए पहले मनुष्य ओर तिथंच इन दो गतियों की अपेक्षा विचार किया गया है । क्षपकके मनुष्यगति तो होतो ही है, क्योंकि उसके बिना संयत आदि पदों की प्राप्ति ही सम्भव नहीं है । अब रहीं शेष तीन गतियां सो ऐसा कोई नियम तो है नहीं कि जो कर्मस्थिति कालके भीतर देवगति और नरकगतिको नियमसे प्राप्त हुआ हो वही जीव आगे कर्मस्थिति कालके भीतर मनुष्य भवको प्राप्त कर क्षपक श्रेणोपर आरोहण करनेका अधिकारी होता है, इसलिए तो इन दो गतियों की अपेक्षा क्षपक जीव के पूर्वबद्ध कमको भजनीय कहा है। शेष रही तियंच गति, सो मनुष्यगतिको कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपमप्रमाण है और इसमें देवगति और नरकगतिको सम्भव भवस्थितिको भी सम्मिलित कर लिया जाय तो भी वह कर्मस्थिति कालप्रमाण नहीं हो पाती। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह क्षपक जीव विवक्षित मनुष्य पर्यायको प्राप्त करनेके पहले कर्मस्थिति कालके भीतर तियंचगति में अवश्य हो रहा होगा । उसमें भो तियंचगतिका ऐसा कौन सा भेद है जिसमें वह अवश्य रहा होगा, क्योंकि असंज्ञो पंचेन्द्रिय तक जितनी भी पर्यायें हैं वे सब तिर्यचगति सम्बन्धी ही हैं। अतः यहां कर्मस्थितिके कालको देखते हुए इतना तो सुनिश्चित कहा जा सकता है कि वह पहले एकेन्द्रिय पर्याय में अवश्य रहा होगा । और यह तथ्य सुनिश्चित है कि कतिपय ऐसे भी जीव होते हैं जो सीधे एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर और मनुष्य पर्याय धारण करकै मुक्तिगामी होते हैं । अतः स पर्यायमे द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञो पंचेन्द्रिय और लब्ध्यपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय में जिन कर्मों का बन्ध होता है वे कर्म इस क्षपक जोवके नियमसे होते ही हैं ऐसा कोई नियम नहीं है | परन्तु एकेन्द्रिय पर्याय में जिन कर्मोंका बन्ध होता है वे इस क्षपक बीवके नियमसे पाये जाते हैं । इतना अवश्य है कि पृथिवीकायिक आदि उत्तर भेदों में से विवक्षित किसी एक कायवाले जीवकी अपेक्षा एकान्तसे ऐसा नियम नहीं किया जा सकता है। शेष कथन मूल टीकामें स्पष्ट किया ही है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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