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________________ जयघवलास हिदे कसायपाहुडे ३१५. एसा पढमभासगाहा गविमग्गणा विसयपढम पुच्छाए भवग्गहण विसयविदियपुच्छाए च णिण्णयविहाणट्टमोइण्णा । संपहि एविस्से अत्थो वुच्चवे । तं जहा - 'दोसु गवीसु अभज्जाणि' एवं भणिदे दोगदीसुं संचिदाणि पुत्रबद्वाणि एदस्स खवगस्स णियमा अत्थि, तदो ताणि ण भणिज्जाणि त्ति घेत्तव्वं, तत्थ तेसि भवणिज्जते कारणाणुवलंभादो । 'दोसु भज्जाणि पुव्वबद्धाणि' एवं भणिदे णिरय-देवगवीसु संचिदाणि पुवबद्धाणि एक्स्स खवगस्त सिया अत्थि सिया णत्थि त्ति भजिदाणि, तेसिमवस्संभाविनियमाभावादो । 'एई दिय- कासु च' एवं भणिदे पुढवि० आउ० तेउ० वाउ०- वनप्फदि० सण्णिवेसु पंचसु थावरकाए एइंदियजा विपडिबद्धेसु जाणि पुण्वबद्धाणि ताणि एबस्स खवगस्स भजिवव्वाणि, तेसि पि पयदविसये अवस्संभाविनियमाणुवलंभादो । तदो एवेसु पंचसु काएसु पादेवकं free goवबद्धाणि भयणिज्जाणि त्ति घेत्तध्वं । 'ण च तसेसु' एवं भणिदे तसकाइय संचिवाणि ११६ बाणि णियमा अत्थि, ण तेसु भयणिज्जत्तसंभवो त्ति वृत्तं होदि । कुवो एवं चे ? तसपज्जायमणः गंतूण खवगसे ढिसमारोहणोवायाभावावो । एत्थ तसकाइयसामण्णणिद्देसे वि तसकाइयविसेसेसु सनिपंचिदिए पुण्बबद्वाणि ण भयणिज्जाणि, वि-ति-चदुरि दियास णिपंचिदियेसु सणि पंचिदियल द्विअपज्जत्तेसु च पुम्वबद्धाणि भयणिज्जाणि चेवेत्ति एसो वि अत्थविसेंसो एत्थेव सुत्तपदे णिलीणो त्ति बटुव्वो । $ ३१५. यह प्रथम भाष्यगाथा, गतिमार्गणाविषयक प्रथम पृच्छा और भवग्रहणविषयक दूसरो पृच्छाका निर्णय करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। अब इसका अर्थ कहते हैं । वह जैसे'दोसु गदो अभज्जाणि' ऐसा कहनेपर दो गतियों में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे होते हैं, इसलिए वे भजनीय नहीं हैं ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि वहाँपर उनके भजनीयपरेका कारण नहीं पाया जाता। 'दोसु भज्जाणि पुव्वबद्धकम्माणि' ऐसा कहनेपर नरकगति और देवगति में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके किसीके होते हैं और किसीके नहीं होते हैं, इसलिए भजनीय हैं, क्योंकि उनके अवश्य ही होनेके नियमका अभाव है । 'एइंदिय-काएसु च' ऐसा कहनेपर पृथिवोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक संज्ञावाले एक न्द्रिय जातिसे प्रतिबद्ध पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें संचित जो पूर्वबद्ध कर्म होते हैं वे इस क्षपके भजनीय हैं, क्योंकि उनके भी प्रकृत विषयमें अवश्य होनेका नियम नहीं पाया जाता । इसलिए इन पांच कायों में से प्रत्येक विवक्षित काय में मंचित पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। और 'ण च तसेसु' ऐसा कहनेपर त्रसकायिक जीवों में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे हैं, इसलिए उनकी अपेक्षा भजनीयपना सम्भव नहीं है । शंका- ऐसा किस कारणसे है ? समाधान — क्योंकि सपर्याय में आये बिना क्षपकश्रेणिपर आरोहण करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है। गाथासूत्र में कायिक ऐमा सामान्य निर्देश करनेपर भी त्रसकाविकके एक भेद संज्ञो - पंचेन्द्रियों में संचित पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय नहीं हैं, किन्तु द्वीन्द्रिय, शोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञोपंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय ही होते हैं इस प्रकार यह अर्थविशेष भी इसी सूत्रपद में निलीन है ऐसा जानना चाहिए। १. वा. प्रती भणिदे गदीसु इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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