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________________ खवगसेढोए चउत्थमूलगाहाए पढमभासगाहा १२१ पिंडस्स एगो वि परमाणू णत्थि। जो पुण अप्पिदथावरकायादो हिस्सरिदूण कम्मट्टिविअम्भंतरे चेव मणुसेसुप्पज्जिय खवगसेढिमारहदि तस्स अप्पिदथावरकायम्मि पुधबद्ध कम्मपदेसग्गं णियमा किट्टीस अस्थि ति घेत्तव्वं । होतं पि एक्को वा दो वा परमाणू जाव उक्कस्सेणाणता परमाणू सवासु किट्टीसु सम्वेसु च टिदिविसेसेस होदूण लब्भंति ति वतन्वं । 5३२४. संपाहि 'ण च तसेस' इच्चेदस्स सत्तावयवस्स विहासणट्टमुत्तरससमोइण्णं* तसकाइयं समज्जिदं णियमा अस्थि । ६३२५. जाव तसकाइयो ण जादो नाव खवगो ण होदि त्ति तेण कारणेण तसकाइय. समज्जिदमेदस्स खवगस्स णियमा अस्थि त्ति घेत्तम् । एत्य तसकाइयसमज्जिदं धुवं कादूण पुणो सेसकाएहि सह एगसंजोगादिकमेण लद्धभंगा एक्कत्तीसं होंति ॥३१॥ ६३२६. एवमेत्तिएण पबंधेण गवीसुकायेस च पृथ्वणिबद्धस्स कम्मस्स भयणिज्जाभयणिज्जसहवेणत्थित्तगवेसणं कादूण संपहि तत्थेव विसेसणिण्णयसमुप्पायणट्टमेगेगगदिसंचियरस कायसंचिवस्स च जहण्णुक्कस्सपदेसग्गस्स पमाणविणिण्णयमप्पाबहुअपरूवणं च कुणमाणो तणिबंधण कर्मप्रदेशपिण्ड का एक भी परमाणु नहीं पाया जाता। परन्तु जो जीव विवक्षित स्थावरकायमेंसे निकलकर कमंस्थितिके भीतर ही मनुष्यों में उत्पन्न होकर क्षरकश्रेणिपर आरोहण करता है उसके विवक्षित स्थावरकाय में पूर्वबद्ध कर्मप्रदेशपुंज कृष्टियोंमें लियमसे पाया जाता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । पूर्वबद्ध प्रदेशपंज होता हुमा भी एक परमाणु होता है, दो परमाणु होते हैं इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे अनन्त परमाणु तक होते हैं जो सभी स्थितियों में सभी कृष्टियोंमें और उनके सब स्थितिविशेषों में प्राप्त होते हैं ऐसा यहां कहना चाहिए। विशेषार्थ-यद्यपि प्रत्येक कायवाले जीवको उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकोंके समयप्रमाण है । परन्तु यहाँ प्रत्येक कायवाले जीवमें संचित हुए पूर्वबद्ध कर्मका क्षपक जीवके भजनीयपना कैसे घटित होता है इस तथ्यको ध्यानमें रखकर मूल टोकामें उक्त प्रकारसे स्पष्टीकरण किया गया है ऐसा यहां समझना चाहिए। ६३२४. अब ‘ण च तसेसु' इस प्रकार उक्त भाष्यगाथाके इस अववयकी विभाषा करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * सकायिक जोवों में समजित कर्म इस क्षपकके नियमसे पाया जाता है। ६३२५. जबतक त्रसकायमें जन्म नहीं लेता तबतक क्षपक नहीं होता ऐसा नियम है। इस कारण त्रसकायिकमें समजित कर्म इस क्षपकके नियमसे पाया जाता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। यहाँपर त्रसकायिकमें समजिन कर्मको ध्रुव करके पुनः शेष कायोंके साथ एक संयोगी आदिके क्रमसे प्राप्त हुए भंग ३१ होते हैं। __ विशेषार्थ-यहाँ त्रसकायिकमें अर्जित कर्म ध्रव है। उसका अन्वय सब भंगोंमें होगा, इसलिए उसे ध्रुव रखकर शेष पृथिवोकायिक आदि पांचकी अपेक्षा कमसे एक संयोगी ५, द्विसंयोगी १०, तीनसंयोगी १०, चारसंयोगी ५ और पांचसंयोगी १ इस प्रकार कुल ३१ भंग प्राप्त होते हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है। ३२६. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा चार गतियों और पांच कायोंमें पूर्वनिबद्ध कर्मके इस क्षपकके भजनीय और अभजनीयरूपसे अस्तित्वका ऊहापोह करके अब वहाँपर विशेष निर्णय को उत्पन्न करनेके लिए एक-एक गतिमें संचित हुए जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशपुंजके तथा
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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