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________________ २२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे हेटिमसलागाणमसंखेज्जदिभागो। तस्स को पडिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एत्थ. तणगुणहाणिअद्धाणस्स तप्पमाणत्तोवएसादो। एवं तिसमयेण अंतरेण णिल्लेविदा विसेसाहिया, चदुसमइयणिल्लेविदा विसेसाहिया, इच्चादिकमेण गंतूण तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणे दुगुणवड्डी होदि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागे दुगुणा । ६५६०. पुवुत्तभागहारमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण तदित्थवियप्पसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तणंतरेण पिल्लेविज्जमाणाणं भवसमयपबद्धाणमदोदकालप्पणाए अणंताओ कम्मट्टिदिविवक्खाए च असंखेज्जपमाणाओ होदूण दुगुणवडिदाओ वटव्वाओ त्ति वुत्तं होइ । एवमेगं दुगुणवडिअद्धाणं। एवंविहेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तेसु दुगुणवड्डिअद्धाणेसु गदेसु तत्थ सयलद्धाणस्स असंखेज्जदिभागे पयदवियप्पसलागाहिं जवमज्झमुप्पज्जदि ति इममत्यविसेसं जाणवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * हाणाणमसंखज्जदिमागे जवमझं । ६५६१. एत्थतणसयलढाणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि एगादिएगुत्तर. कमेण परिवडिदाणमणिल्लेविटिदिसलागाणं तत्तो अहिययराणमणुवलंभादो। एवंविहस्स सयल शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान–पल्योपमका असंख्यातवा भाग प्रतिभाग है, क्योंकि यहाँका गुणहानिअध्वान तत्प्रमाण है ऐसा आगमका उपदेश है। इसी प्रकार तीन-तीन समयके अन्तरसे निर्लेपित वे विशेष अधिक हैं, चार-चार समयके अन्तरसे निलंपित वे विशेष अधिक हैं इत्यादि क्रमसे जाकर उसके बाद पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंके प्राप्त होनेपर द्विगुण वृद्धि होती है। इस प्रकार इसका ज्ञान कराने के लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * इस प्रकार विशेष अधिकके क्रममे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर वहाँ उनका प्रमाण दूना होता है। ५६०. पूर्वोक्त भागहारप्रमाण स्थान ऊपर क्रमसे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरसे निलेप्यमान भवबद्ध और समयप्रबद्धोंकी वहां प्राप्त हुई शलाकाएं अतीत कालकी मुख्यतासे अनन्त और कर्मस्थितिकी विवक्षामें असंख्यातप्रमाण होकर दूनी वृद्धिको प्राप्त हुई जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यह एक दूना वृद्धिरूप स्थान है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंके व्यतीत होनेपर वहाँ समस्त स्थानोंके असंख्यातवें भागमें प्रकृत भेदरूप शलाकाओंके आश्रयसे यवमध्य उत्पन्न होता है इस प्रकार इस अर्थविशेषका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं ॐ यहाँ जितने द्विगुण वृद्धिरूप स्थान प्राप्त होते हैं उनके असंख्यातवें भागमें यवमध्य होता है। ६५६१. यहाँ समस्त स्थान पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं क्योंकि एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे परिवर्धित अनिर्लेपित स्थितिसम्बन्धी शलाकाएं उनसे अधिक नहीं पाई
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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