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________________ खवगरे ढोए अण्णा २२१ विरोहेणाणुगंतव्वो। संपहि एगादिएर तरकमेण परिषड्दिाहिं अणिल्लेवणट्ठिदीहिं अंतरिदाणं पिल्लेवदिदीणमुदयेण पिल्लेविदपुव्वाणं भव-समयपबद्धाणमदीदकालविसये थोवबहुत्तमक्खवगसंबंधेण पल्वेमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ __* अक्खवगस्स एगसमइयेण अंतरेण णिल्लेविदा समयपबद्धा वा भवबद्धा वा थोवा। ६५५८. एदस्सत्थो वुच्चदे-अक्खवगस्स अदीदे काले णाणाकम्मढिदिअभंतरे वा एगकम्मदिदिअभंतरे वा दोसु वि पासेसु एगेगअपिल्लेवणदिदि-अंतरं होदूण पुणो तासि मज्झे जेत्तियाओ भवसमयपबद्धाणं णिल्लेवद्विदीओ उदयमागदाओ अस्थि तासु लद्धसमयपबद्धाणं भवबद्धाणं च तत्थेव णिल्लेविवसहवाणं सम्वत्थ उच्चिणिदूण गाहिदसलागाओ अणंताओ असंखेज्जाबो च होदूण सव्वत्थोवाओ भवंति; उवरिमवियप्पपडिबद्धभव-समयपबद्धसलागाणमेत्तो जहाकम बहुत्त सणादो। * दुसमएण अंतरेण णिन्लेविदा विसेसाहिया । ६५५९. दोसु वि पासेसु दो-होमणिल्लेवणट्ठिदोओ होदूण पुणो तासि मज्झे केत्तियाओ वि भव-समयपबद्धणिल्लेवणहिदीओ उदयं कादूण गदाओ अवीवकालप्पणाए अणंताओ अस्थि । कम्मट्ठिविविवक्खाए च असंखेज्जाओ। पुणो तासु पिल्लेविदसमयपबद्धाणं भवबद्धाणं च गहिदसलागाओ हेट्ठिमवियप्पसलागाहितो विसेसाहियाओ होति ति सुत्तत्थसंबंधो। विसेसपमाणमेंत्थ अविरोधपूर्वक प्रकृत अल्पबहुत्वका अनुगम जानना चाहिए। अब एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे परिवर्धित अनिलेपन स्थितियोंसे अन्तरित निलेपन स्थितियोंका उदयसे निर्लेपितपूर्व भवबद्ध और समयप्रबद्धोंके अतीत कालसम्बन्धी अल्पबहुत्वको अक्षपकके सम्बन्धसे प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * अक्षपकके एक समयिक अन्तरसे निलेपित समयप्रबद्ध अथवा भवबद्ध सबसे थोड़े हैं। ६५५८. अक्षपत्र के अतीत कालमें नाना कर्मस्थितियोंके भीतर अथवा एक कर्मस्थितिके भीतर दोनों ही पाश्वंभागोंमें एक-एक अनिर्लेपनरूप स्थितिका अन्तर होकर पुनः उनके मध्यमें जितनी भवबद्धों और समयप्रबद्धोंकी निर्लेपनस्थितियां उदयको प्राप्त हुई हैं उनमें वहीं निर्लेपित स्वरूप प्राप्त हुए समयप्रबद्धों और भवबद्धोंकी सर्वत्र मिलाकर ग्रहण की गयी शलाकाएं अनन्त और असंख्यात होकर सबसे थोड़ी होती हैं, क्योंकि उपरिम विकल्पोंसम्बन्धी भवबद्ध और समयप्रबद्धोंकी शलाकाएं आगे-आगे क्रमसे बहुत देखी जाती हैं। * वो समयिक अन्तरसे निर्लेपित समयप्रबद्ध और भवबद्ध विशेष अधिक होते हैं। ६५५९. दोनों ही पार्श्वभागोंमें दो-दो अनिर्लेपनरूप स्थितियां होकर पुनः उनके मध्य में कितनी ही भवसिद्ध और समयप्रबद्धसिद्ध निलेपन स्थितियां उदयको प्राप्त होकर अतीत कालकी मुख्यतामें अनन्त होती हैं और कर्मस्थितिकी मुख्यतामें असंख्यात होती हैं। पुनः उनमें जिनका निर्लेपन हो गया है ऐसे समय प्रबद्धों और भवबद्धोंकी ग्रहणकी गयी शगकाएँ अधस्तन भेदोंकी शलाकाओंसे विशेष अधिक होती हैं यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। यहाँपर विशेषका प्रमाण अधस्तन शलाकाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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