SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "द्रण १९८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पुटवावरपरामरसकुसलेहिं चितियण णेदव्वमिदि अत्थसमप्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * जवमझं कायव्वं विस्सरिदं लिहिदु । 5५१४. एवं भणंतस्साहिप्पाओ-खवगपाओग्गपरूवणाए अभवसिद्धियपाओग्गपरूवणाए च पढमभासगाहाए अत्थपरूवणं कादूण पुणो तत्थ तेहिं भव-समयपबद्धसमयहि एगढिदिविसय. पडिबद्धेहि जाणाकालसंबंधेण एगादिएगुत्तरकर्मण लम्भमाणेहि समयाविरोहेण जवमझं पि कायब्वमस्थि । गरि तमम्हेहि लिहिदुं विस्सरिदं छदुमत्यभावेण। तदो तमेत्थ वक्खाणाइरिएहि चितिय णेदवमिदि। कधं पण पुवावरपरामरसकुसलस्स सुत्तयारस्स विस्सरणसंभवो त्ति णासंकणिज्जं, अविस्सरिदसरुवं पितं जवमझ सुबोहं ति कादूण विस्सरणणिभेण सिस्साणमत्थसमप्पणं कुणमाणस्स तद्दोसाणवयारादो। "विचित्रा शैली सूत्रकाराणाम्' इति न्यायात् । तदो तमेत्थ परमगुरुसंपदायबलेण वत्तइस्सामो। तं जहा एगहिदिविसेसम्मि अदीदे काले एक्कस्स जीवस्स एगेगसमयपबद्धसेसयमच्छियूण तेण सहवेणजे जिल्लेविदा समयपबद्धा ते थोवा। सिपादेव गदिवसलागाओ अताओ दोरण थोवाओ त्ति भाणदं होदि। पुणो दोणि दोणि समयपबद्धसेसयाणि एगट्टिदिविसेसे होदूण उवयं कादूण गदा जे समयपबद्धा ते विसेसाहिया। एत्थ विसेसपडिभागो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिसम्बन्ध रखनेवाला किंचित् प्ररूपणाविशेष है उसे यहाँपर पूर्वापर अर्थका परामर्श करनेमें कुशल जीवोंको विचारकर जान लेना चाहिए। इस प्रकार अर्थको समाप्ति करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं ॐ यहाँपर यवमध्य करना चाहिए। उसे लिखनेका स्मरण नहीं रहा। ६५१४. इस प्रकार कहनेवाले आचार्यका यह अभिप्राय है कि क्षपकके योग्य प्ररूपणामें और अभव्यसिद्धिक जीवोंके योग्य प्ररूपणामें प्रथम भाष्यगाथाके अर्थको प्ररूपणा करके पुनः वहां एक स्थितिके विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले नाना कालोंके सम्बन्धसे एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे प्राप्त होनेवाले भवबद्ध और समयप्रबद्धसम्बन्धी समयोंके द्वारा समयके अविरोधपूर्वक यवमध्य भी करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि छमस्थ होनेके कारण उसे लिखनेका हमें स्मरण नहीं रहा। इसलिए उसका यहांपर व्याख्यानाचार्योंके द्वारा विचार करके कथन करना चाहिए। शंका-पूर्वापर आगमका परामर्श करने में कुशल सूत्रकारका इसका विस्मरण होना कैसे सम्भव है? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह यवमध्य अविस्मरणस्वरूप होकर भी सुबोध है, ऐसा समझकर मानो उसे भूल गये हों इस प्रकार शिष्योंको अर्थके समर्पण करनेमें कुशल आचार्यपर उक्त दोषका अवतार नहीं होता, अर्थात् उक्त दोष लागू नहीं होता, क्योंकि 'सूत्रकारोंके कथन करनेकी शेली विचित्र अर्थात् अनेक प्रकारको होती है' ऐसा न्याय है। इसलिए उसका यहाँपर परम गुरुके सम्प्रदायके बलका अवलम्बन लेकर बतलावेंगे। वह जैसे अतीत कालविषयक एक स्थितिविशेषमें एक जीवके एक-एक समयप्रबद्धशेष होकर उस रूपसे जो समयप्रबद्ध निर्लेपित हुए हैं वे सबसे थोड़े हैं। उनमें से प्रत्येककी ग्रहण की गयी शलाकाएं अनन्त होकर सबसे थोड़ी हैं यह कहा गया है। पुनः एक स्थितिविशेषमें दो-दो समयप्रबद्ध उदयको प्राप्त कर जो समयप्रबद्ध गत हो गये वे विशेष अधिक हैं। यहाँपर विशेष लानेके
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy