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________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहाए पढमभासगाहा १९७ सेसयाण पहिं भासगाहाहि विसेसिगूण परूवणं कुणमाणो तत्थ ताव पढमभासगाहाए अत्यविहासणट्ठमुवरिमं पबंधमाह * एकम्हि द्विदिविसेसे एकस्स वा समयपबद्धस्स सेसयं दोण्हं वा तिण्हं वा उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं । ६५११. 'कदि वा एगसमयेणेत्ति' एवं मूलगाहाए चरिमावयवमस्सियूण अभवसिद्धियपाओग्गविसये पढमभासगाहाए अत्थविहासणे कोरणमाणे भवसिद्धियपाओग्गविसयपरूवणादो पत्थि किंचि णाणत्तमिदि एदेण सुत्तेण जाणाविदं; उहयत्थ वि एगटिदिविसेसेसु पलिवोवमस्स असंखेन्जविभागमेत्ताणं समयपबद्धसेसाणमुक्कस्सपक्खेण संभवं पडि विसेसाभावादो। * एवं चेव भवबद्धसेसाणि । ६५१२. जहा समयपबद्धसेसयाणि एक्कम्हि दिदिविसेसे उक्कस्सेण पलिवोवमस्स असंखेजविभागमेत्ताणि तहा चेव भवबद्धसेसाणि वि होति ति भणिदं होइ । सेसं सुगम । एवमेत्तिये अत्थे विहासिदे तदो पढमभासगाहाए अत्यविहासा अभवसिद्धिपाओग्गविसये समप्पा त्ति जाणावणटुमुवसंहारवक्कमाह * पढमाए गाहाए अत्थो समत्तो भवदि । ६५१३. सुगमं । णवरि एत्युद्देसे किंचि परूवणाविसेसं पढमभासगाहापडिबद्धमत्थि तमेत्य भाष्यगाथाओं द्वारा विशेषरूपसे प्ररूपणा करते हुए यहां सर्वप्रथम प्रथम भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करने के लिए बागेके प्रबन्धको कहते हैं * एक स्थितिविशेषमें एक समयप्रबद्धका शेष पाया जाता है, वो या तीन समयप्रबद्धोंके शेष पाये जाते हैं। इस विषिसे उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंके शेष पाये जाते हैं। ६५११. मूलगाथाके 'कदि वा एगसमयेणेत्ति' इस अन्तिम चरणका आश्रय लेकर अभव्यसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें प्रथम भाष्यगाथाका अर्थ करनेपर भव्यसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयकी प्ररूपणासे कुछ भी भेद नहीं है यह इस सूत्र द्वारा ज्ञान कराया गया है, क्योंकि दोनों प्रकारके ही जीवोंके एक स्थितिविशेषमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धशेष उत्कृष्ट पक्ष की अपेक्षा भी सम्भव होनेके प्रति कोई भेद नहीं पाया जाता। ॐ इसी प्रकार भवबद्धशेषों को भी प्ररूपणा करनी चाहिए। ५१२. जिस प्रकार एक स्थितिविशेषमें समयप्रबद्धशेष उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पाये जाते हैं उसी प्रकार भवबद्धशेष भी पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार इतने अर्थको विभाषा करनेपर अभव्यसिद्धिक जीवके विषय में प्रथम भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त होती है। इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए उपसंहारस्वरूप सूचको कहते हैं। * प्रथम भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त होता है। ५१३. यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि इस स्थानपर प्रथम भाष्यगाथासे
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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