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________________ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे परिच्छिण्णपमाणाहिं णाणागुणहाणिसलागाहिं णिल्लेवणट्ठाणसयलद्धाणे ओवट्टिदे एयगुणहाणिटाणं. तरपमाणमागच्छवि त्ति घेत्तन्वं । * णाणागुणहाणिहाणंतराणि थोवाणि । ६५०९. सुगमं। * एयगुणहाणिहाणंतरमसंखेज्जगुणं । ६५१०. को गुणगारो ? असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि; हेट्रिमरासिणा उवरिमरासिम्मि ओट्टिने तहाविहगुणगारसमुप्पत्तिदंसणादो। एसा सव्वा वि पावणा समयपबद्धणिल्लेघणटाणाणि अस्सियूण परूविदा । एवं चेव भवबद्धाणं पि पिल्लेवणटाणाणि पवाइज्जतोवएसभेवमस्सियूण णेदव्वाणि विसेसाभावादो। गवरि समयपबद्धस्स जहण्णणिल्लेवणट्ठाणावो उवरि असंखेज्जामी द्विदीओ अम्भुस्सरियूण भवबद्धाणं जहण्णणिल्लेवणट्ठाणं होदि ति। तत्तो पहडि पवुत्ता जवमझपरूवणा कालविसया णेदव्वा; जम्हि चेव उद्देसे समयपबद्धणिल्लेवणटाणाणं जवमझ जावं तम्हि चेव भवबद्धाणि णिल्लेवणटाणाणं पि जवमझ होदि ति घेत्तन्वं । कुदो एवं परिच्छिज्जवे ? उरि भणिस्समाणचुण्णिसुत्तादो। एवमेत्तिएण पबंधेण भवबद्ध-समयपबद्धणिल्ले. वणट्राणाणं सहवं जाणाविय संपहि एदेसु पिल्लेवणट्ठाणेसु णिल्लेविज्जमाणभव-समयपबद्ध अब इस प्रकार जिनका प्रमाण अवगत कर लिया है ऐसी नाना गुणहानिशलाकाओंके द्वारा निर्लेपनस्थानके सकल अध्वानके भाजित करनेपर एक गुणहानिस्थानान्तरका प्रमाण प्राप्त होता है यह ग्रहण करना चाहिए। * नाना गुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं। ६५०९. यह सूत्र सुगम है। * उनसे एक गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। ६५१०. शंका-गुणकारका प्रमाण कितना है ? समाधान-पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण गुणकारका प्रमाण है, क्योंकि अधस्तन राशिसे उपरिम राशिके भाजित करनेपर उस प्रकारके गुगकारकी उत्पत्ति देखी जाती है। यह सब प्ररूपणा समयप्रबद्ध निर्लेपनस्थानोंका आलम्बन लेकर की है। इसी प्रकार भवबद्धोंके निर्लेपनस्थानोंकी भी प्ररूपणा प्रवाह्यमान उपदेशका अवलम्बन लेकर जानना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है। इतनी विशेषता है कि समयप्रबद्धके जघन्य निर्लेपनस्थानसे ऊपर असंख्यात स्थितियोंको उत्सारित करके भवबढोंका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है। पुनः उससे जागे कालविषयक पूर्वोक्त यवमध्यप्ररूपणा ले जानी चाहिए। जिस स्थानपर समयप्रबद्ध निर्लेपनस्थानोंका यवमध्य प्राप्त होता है उसो स्थानपर भवबद्ध निर्लेपनस्थानोंका भी यवमध्य प्राप्त होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आगे कहे जानेवाले चूणिसूत्रसे जाना जाता है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा भवबद्ध और समयप्रबद्ध निलेपनस्थानोंके स्वरूपका ज्ञान कराकर अब इन निलेप्यमानस्थानोंमें निर्लेप्यमान भवबढशेषोंकी और समयप्रबद्धशेषोंकी चार
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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