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________________ खवगसेढीए अट्ठममूलगाहाए पढमभासगाहा १९९ भागो। एवं तिण्णि-चत्तारिआदिकोण गंतूण पुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तसमयपबद्धसेसयाणि एक्कम्मि टिदिविसेसे अच्छिदूण उदयं कादूण जाणि गवाणि तेसि गहिदसलागाओ दुगुणाओ। एवं पलिदोवमस्स असंखेन्जविभागमेत्तदुगुणवडीओ गंतूण तदो जवमझं होदि । तत्तो उवरि सम्वत्थ विसेसहीणकमेण गच्छंति जाव सव्वुक्कस्सपलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतसमयपबद्धसेससलागाहिं एगढिविविसयाहि विसेसिवा समयपबद्धा चरिमवियप्पा होवूण पज्जव. सिवा त्ति । एवं भवबद्धसेसयाणं पिणेदव्वं ति। ६५१५. अधवा एवमेत्थ जवमझ कायवमिदि अण्णे वक्खाणाइरिया भणंति । तं कधं ? एगदिदिविसेसे सेसभावेणच्छिदूण ओकडुणाए उदयमागंतूण पिल्लेवणभावं गवसमयपबद्धा थोवा । जे दोसु दिदिविसेसेसु सेसभावेणच्छिदूण ओकडणावसेणुवयं काबूण पिल्लेविदा समयपबद्धा ते विसेसाहिया। एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतद्विवीसु सेसभावेणच्छिण उवयं कारण पिल्लेवणपज्जायं गवाणं सलागाओ दुगुणाओ भवति । एवं गंतूण तदो जवमझ होदूण पुणो विसेसहाणीए गच्छंति जाव चरिमवियप्पो ति। ण समीचीणमेदं वक्खाणं, एगढिदिविसयाणं समयपबद्धसेसयाणं जवमझपरूवणावसरे गाणाढिविविसयाणं तेसि जवमझपरूवणाए असंबद्धत्तादो। एवं विहाए परूवणाए वट्टमाणादीदकालविसयाए विदियभासगाहासुत्ते णिबद्धत्त. बंसणावो च । तम्हा पुवुत्तो चेव जवमझविसेसो एत्थ सुत्तचिदो त्ति घेत्तव्वं । लिए प्रतिभाग पल्योपमके असख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार तीन, चार आदिके क्रमसे जाकर पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जो समयप्रबदशेष एक स्थितिविशेष में रहकर और उदयको प्राप्त होकर गत हो जाते हैं उनकी ग्रहण की गयी शलाकाएं दूनी होती हैं । इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां जाकर यवमध्य होता है। पुनः इससे आगे सर्वत्र विशेष हीनके क्रमसे तब तक जाते हैं जब जाकर सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धशेष. सम्बन्धी शलाकाओंसे युक्त एक स्थितिविषयक समयप्रबद्ध अन्तिम विकल्परूपसे अन्तको प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार भववद्धशेषोंका भी कथन करना चाहिए। ६५१५. अथवा इस प्रकार यहाँपर यवमध्य करना चाहिए ऐसा अन्य आचार्य व्याख्यान करते हैं। वह कैसे ? एक स्थितिविशेषमें शेषरूपसे रहकर अपकर्षणके द्वारा उदयको प्राप्त होकर निलेपनभावको प्राप्त हुए समयप्रबद्ध सबसे थोड़े हैं। जो दो स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे रहकर अपकर्षणके वशसे उदयको प्राप्त होकर निर्लेपनभावको प्राप्त हुए समयप्रबद्ध हैं वे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें शेषरूपसे रहकर उदयको प्राप्त होकर निर्लेपनपर्यायको प्राप्त हुई शलाकाएं दूनी होती हैं। इस प्रकार जाकर यवमध्य होकर पुनः विशेष हानिके क्रमसे अन्तिम विकल्पके प्राप्त होने तक जाते हैं। किन्तु यह व्याख्यान समोचीन नहीं है. क्योंकि एक स्थितिविषयक समयप्रबद्धशेषोंके यवमध्यकी प्ररूपणाके अवसरपर नाना स्थितिविषयक उन समयप्रबद्धशेषोंकी प्ररूपणा करना असम्बद्ध है, क्योंकि वर्तमान, अतीत कालविषयक इस प्रकारको प्ररूपणा दूसरे भाष्यगाथासूत्रमें निबद्ध देखी जाती है। इसलिए पूर्वोक्त यवमध्यविशेष हो यहाँपर सूत्रसूचित ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ-प्रथम भाष्यगाथामें एक स्थितिको बालम्बन बनाकर एक या एकसे अधिक समयप्रबद्धशेषोंकी अपेक्षा यवमध्य प्ररूपणा की गयी है। किन्तु व्याख्यानाचार्य एक या एकसे अधिक स्थितिविशेषोंको आलम्बन बना समयप्रबद्धशेषोंको अपेक्षा यवमध्यप्ररूपणा इस भाष्यगाथाके
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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