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________________ खवगसेढीए किट्टीओ करेंतो किट्टीओ ण वेदेदि ठिदिसंतकम्मं संखेजाणि वस्ससहस्साणि । णामागोदवेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेजाणि वस्ससहस्साणि । ३७ १०२. पुत्तसंधीए चदुण्हं संजलणाणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जवस्सस हस्तमेतं होण विं तत्तो कमेण हाइण एव्हिमंतोमुहुत्ता हियअट्ठवस्सपमाणं संजादं । सेसाणं तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्ममज्ज वि संखेज्जवस्ससहस्तियं चेव, मोहणीयस्सेव तेसि सुट्टु विसेसघावाभावादो । तिहमघाविकम्प्राणं पुण द्विवि संतकम्ममसंखेज्जगुणहाणीए जहाकममोवट्टमाणं पि अज्ज वि असंखेज्जवस्तसहस्सपमाणं चेव होह, तेसिमेवम्मि विसये पयारंतरासंभवादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यविणिच्छओ । एवमेवीए परूवणाए किट्टोकरणद्धाचरिमसमए वट्टमाणस्स पुणो वि अइक्कं तत्थविसये किंचि परूवणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * किट्टीओ करेंतो पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च वेदेदि, किट्टीओ न वेदयदि । ६ १०३. जहा अपुव्वफद्दयानि करेमाणो तदवत्थाए चेव पुग्वफद्दएहि सह अनुष्वफद्दयाणि वेवेविण एवमेसो किट्टीकारगो किट्टीओ वेदेवि, किन्तु किट्टीकरणकालभंतरे सव्वत्थेव पुण्वापुवफद्दयाणि चेव पुष्वुतेण कमेण वेदेदित्ति भणिदं होदि । संपहि किट्टीकरणद्धाए चरिमसमए पुण्यापुण्यफद्दयाणमसंखेज्जदिभागमेंत्तं दव्वं दुचरिमसमयोकड्डिददव्वादो असंखेज्जगुण पमाणमोट्टि व कमेण किट्टीसु णिक्खिवदि । पुम्वापुवफद्दयाणि च ताधे अविणसरुवाणि सत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण तथा नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म असंख्यात हजार वर्ष प्रमाण हो जाता है । १०२. पूर्वोक्त सन्धिमें चार संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होकर स्थित रहता है । पुनः उससे क्रमशः घटकर इस समय अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष प्रमाण हो जाता है। शेष तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म अभी भी संख्यात हजार वर्ष प्रमाण ही रहता है, क्योंकि मोहनीय कर्मके समान उनका अच्छी तरह विशेष घात नहीं होता । परन्तु असंख्यात गुणहानि द्वारा क्रमशः अपवर्तनको प्राप्त हुए तीन अघाति कमौका स्थितिसत्कर्म अभी भी असंख्यात हजार वर्षप्रमाण ही रहता है, क्योंकि उनका इस स्थानपर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है यह यहाँपर सूत्रके अर्थका निश्चय है । इस प्रकार इस प्ररूपणा द्वारा कृष्टिकरण कालके अन्तिम समय में विद्यमान हुए जीवके फिर भी व्यतीत हुए अर्थके विषय में किंचित् प्ररूपणा करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * कृष्टियों को करनेवाला जीव पूर्व स्पधंकों और अपूर्व स्पर्धकों का वेदन करता है, कृष्टियोंका वेदन नहीं करता । ६ १०३. जिस प्रकार अपूर्व स्पधंकों को करनेवाला जीव उस अवस्था में ही पूर्व स्पर्धकोंके साथ अपूर्व स्पर्धकों का वेदन करता है उस प्रकार कृष्टिकारक यह जीव कृष्टियों का वेदन नहीं ही करता है । किन्तु कृष्टिकरण के काल के भीतर सभी समयों में ही पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों का ही पूर्वोक क्रमसे वेदन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब कृष्टिकरण के कालके अन्तिम समय में पूर्व ओर अपूर्व स्पर्धकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य, जो कि उपान्त्य समय में अपकर्षित किये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, उसे अपकर्षित करके पूर्वोक क्रमके अनुसार कृष्टियों में निक्षिप्त करता है तथा पूर्व और अपूर्व स्पर्धक उस समय अविनष्टरूपसे अवस्थित रहते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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