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________________ २१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १५४५. कुदो पुण दोण्हमेदेसि भिण्णुद्देसेसु पारद्धाणमेक्कम्मि चेव उद्देसे मज्झसंभवो ? ण, एदम्हादो चेव सुत्तादो तहाविहसंभवागमादो। तदो समयपबद्धणिल्लेवणटाणाणं जवमज्झस्स पढममेव पारंभो होदूण पुणो तत्तो अंतोमुहुत्तमें तणिल्लेवणट्ठाणाणि गंतूण तत्थ भवबद्वाणं जहण्णपिल्लेवणट्ठाणस्स पारंभो होदूण पुणो दोण्हं पि जवमज्झाण नुवरि समयाविर।हेण गच्छमाणाणमेकिमिम चेव दिदिविसेसे मज्झपदेसो होदूण पुणो उवरि समाणढाणाणि हेटिमद्धाणादो असंखेज्जगुणमेताणि गंतूग दोण्हं पि उकस्सपिल्लेवणट्ठाण विसए जुगवमेव परिसमत्ती होदि ति एसो एत्थ सुत्तत्थ संगहो। अहवा एत्य जवमज्झमिदि वुत्ते कालजवमज्झं पुत्वमेव परूविदमिदि तं मोत्तूण जहणणिल्लेवणाणप्पहुडि जावुक्कस्सपिल्लेवणट्ठाणेति एदेसु द्वाणेसु णिल्लेविदपुव्वाणं समयपबद्धाणं भवबद्धाणं च अदीदकालविसयाओ सलागाओ घेतण जवमझपरूवणा कायव्वा । तं जहा-जहण्णए पिल्लेवणटाणे गिल्लेविद व्वा समयपबद्धा भवबद्धा वा थोवा समयुत्तरे विसेसाहिया। एवं गंतूग पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे दुगुणवडिदा। तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमुवरि गंतूण पिल्लेवणढाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमझं । ततो विसेसहोणकमेण णेदव्वं जाव उक्कस्सपिल्लेवणटाणेत्ति । णवरि सव्वणिल्लेवणट्ठाणेसु णिल्लेविदपुव्वा समयपबद्धा भवबद्धा च अणंतसंखाविसेसिदा चेव होंति; अदीदकालप्पणाए तदविरोहादो । संपहि अभवसिद्धिय शंका-इन दोनोंका यवमध्य भिन्न-भिन्न प्रदेशोंमें प्रारम्भ होता है, तो भी इनका एक ही प्रदेशमें मध्य कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि इसो सूत्रसे उनके उस प्रकारके सम्भव होनेका ज्ञान होता है। ६५४५. इस कारण समयप्रबद्धोंके निर्लेपनस्थानोंका यवमध्य पहले ही प्रारम्भ होकर पुनः उससे अन्तर्महुर्तप्रमाण निर्लेपनस्थान जाकर वहांपर भवबद्धोंके जघन्य निर्लेपनस्थानका प्रारम्भ होकर पुनः समयके अविरोषपूर्वक दोनोंके हो जाते हुए यवमध्योंके ऊपर एक ही स्थितिविशेषमें मध्यका प्रदेश होकर पुन: अधस्तन स्थानसे ऊपर असंख्यातगुणे समान स्थान जाकर दोनोंके ही उत्कृष्ट निलेपनस्थानविषयक एक साथ समाप्ति होती है इस प्रकार यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अथवा यहाँपर यवमध्य ऐसा कहनेपर काल यवमध्य का कथन तो पहले हो कर आये हैं, इसलिए उसे छोड़कर जघन्य निर्लेपनस्थानसे लेकर उत्कृष्ट निलेपनस्थान के प्राप्त होने तक इन स्थानों में जिनका पूर्वमें निर्लेपन कर आये हैं ऐसे समयप्रबद्धों और भवबद्धोंकी अतीत कालविषयक शहाकाओंको ग्रहण कर यवमध्यप्ररूपणा करनी चाहिए। वह जैसे-जघन्य निर्लेपनस्थानमें पूर्व में निलेपित किये गये समयप्रबद्ध अथवा भवबद्ध सबसे थोड़े होते हैं। उनसे एक समय अधिक पूर्व में निर्लेपित किये गये वे दोनों विशेष अधिक होते हैं। इस प्रकार एक-एक अधिकके क्रमसे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमें वे दोनों दूनी वृद्धिसे युक्त होते हैं। तदनन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ऊपर जाकर निर्लेपनस्थानोंके असंख्यातवें भागमें यवमध्य प्राप्त होता है। तत्पश्चात् विशेष होनक्रमसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपनस्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पूर्वमें निर्लेपित किये गये समयप्रबद्ध और भवबद्ध अनन्त संख्यासे सहित ही होते हैं क्योंकि अतीत
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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