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________________ २०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * तिसु द्विदिविसेसेसु विसेसाहियाणि । ६ ५२३. तिसु टिदिविसेसेसु होदूण जाणि समयपबद्धसेसयाणि समवदिवाणि ताणि पुग्विल्लेहितो विसेसाहियाणि । विसेसपमाणमेत्य वि पुव्वं व वत्तव्वं । * पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागे जवमन्झं । ६५२४. एवमणंतराणंतरावो अवद्विदेगेगविसेसवड्डोए गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि. भागमेत्तद्धाणे पलिदोबमस्स असंखेज्जविभागमेत्तद्विदीओ आधारं कादूण टिदसमयपबद्धसेसयाणि घेतूण दुगुणवड्डी होति। एवंविहाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तदुगुणवडिट्ठाणंतराणि गंतूण तदित्यगुणवडीए चरिमवियप्पम्मि पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतदिविविसेसेसु बट्ट माणाणं समयपबद्धसेसाणं सलागाओ जवमज्झसरूवेण दवाओ। तदो जवमजमावो उवरि विसेसहाणीए असंखेज्जगुणहाणोओ गंतूण चरिमवियप्पे पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतदिदिविसेसेसु सवुक्कस्सेसु वट्टमाणाणं समयपबद्धसेसयाणं सलागाओ असंखेज्जगुणहीणाओ होण पयदपवणाए पज्जवसाणभावेश णिट्टिदाओ। एत्थ जवमझादो हेटिमोवरिमणाणागुणहाणिद्वाणंतरसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेन्जविभागमेत्तीओ होति । एयगुणहाणिट्ठाणंतरं पि पलिदोवमस्स असंखेजविभागमेत्तं चेव होइ । होतं पिणाणागुणहाणिटाणंतरसलागाहितो असंखेज्जगुणमेव होवि ति परूवणट्ठमुत्तरसुत्तणिद्देसो *णाणंतराणि थोवाणि। * तीन स्थितिविशेषोंमें पाये जानेवाले समयप्रबद्धशेष विशेष अधिक हैं। ६५२३. तीन स्थितिविशेषोंमें रहकर जो स्थितिविशेष अवस्थित हैं वे पूर्वके स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा विशेष अधिक हैं । यहाँपर विशेषका प्रमाण पहलेके समान कहना चाहिए। * इस विधिसे आगे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमें समयप्रबद्धशेषोंका यवमध्य प्राप्त होता है। ६५२४. इस प्रकार अनन्तर तदनन्तररूपसे स्थित एक-एक विशेषको वद्धि होनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अध्वानमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंको आधार करके जो समयप्रबद्धशेष अवस्थित हैं उन्हें ग्रहण कर द्विगुणवृद्धि होती है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धिस्थानान्तर जाकर वहाँ प्राप्त द्विगुणवृद्धिके अन्तिम भेदमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें विद्यमान समयप्रबद्धशेषोंको शलाकाएं यवमध्यरूपसे जाननी चाहिए। तत्पश्चात् यवमध्यके ऊपर विशेष हानि द्वारा असंख्यात गुण. हानियां जाकर अन्तिम भेदमें प्राप्त सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्शातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें विद्यमान समयप्रबद्धशेषोंको शलाकाएं असंख्यात गुणहानिरूप होकर प्रकृत प्ररूपणामें पर्यवसानरूपसे निर्दिष्ट की गयी हैं। यहाँपर यवमध्यसे पहलेको और आगेको नाना गुणहानि. स्थानान्तरशलाकाएं पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। और एक गुणहानिस्थानान्तर भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। ऐसा होते हुए भी नाना गुणहानिशलाकाओंसे असंख्यातगुणा ही होता है इस बातका कथन करने के लिए आगे के सूत्रका निर्देश करते हैं नाना गुणहानिस्थानान्तर अल्प हैं।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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