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________________ खवगसेढोए बज्झमाणपदेसग्गादो निप्पज्ज्ञमाणापुव्वकिट्टीणं अप्पा बहुअपरूवणा २६३ पुव्व किट्टीणं भणिदविहाणेण णेदव्वा । णवरि संगहकिट्टीए हेट्ठा णिव्वत्तिज्जमाणापुव्व किट्टीसु पुव्वत्तेण कमेण पदेसणिसेगं काढूण तदो अपुव्वाणं चरिमकिट्टीदो पुव्वजहण्णकिट्टीए असंखेज्जगुणहीणं पदेसग्गं णिसिचदि । तत्तो अनंतभागहीणं जाव ओकड्डुक्कडुणभागहारमेत्तद्वाणमुवरि चडिदूण द्विदतदित्य पुव्वकिट्टि ति । तदो तत्थ किट्टीअंतरे निव्त्रत्तिज्ज माणापुव्व किट्टीए असंखेज्जगुणं, तदो असंखेज्जगुणहोणं, तत्तो परमणंत भागहीणमिच्चादिक्रमेण संधीओ जाणियूण दव्वं जाव णिरुद्धसंगह किट्टीए समत्ता त्ति । एत्तो उवरिमसंगह किट्टीसु वि एदेणेव विहाणेण सेढिपरूवणा कायव्वा । § ६५६. अधवा संतकम्मस्स असंखेज्जदिभागभूदणवकबंधपदेसग्गेण जिव्वत्तिज्जमाणाणमपुव्वकिट्टीणं जहा अनंतगुण होण-अनंतगुणहीणक्रमेण सेढिपरूवणा सुत्तणिबद्वाकया एवमेत्य चिराणसंतकम्मादो असंखेज्जगुणहीण संका मिज्जमानपदेसग्गेण निव्वत्तिज्जमाणाणमपुव्व किट्टीणं दुविहाणं पि संधी अनंतगुणहीणाहियकमेण सेढिपरूवणा णिव्वा मोहमणुगंतव्या; एदस्सेवत्थस्स सुत्ताणुसारितेण पहाणभावोवलंभादो । एवमेसा किट्टीवेवगस्स पढमसमये सव्वा परूवणा विदियादिसमये वि एवं चैव वत्तव्वा ; विसेसाभावादो । संपहि किट्टीवेदगपढमसमय पहुडि समये समये विणासिज्जमाणाणं किट्टीणं थोवबहुत्तपरूवणट्ठमुवरिमपबंधमाढवेइ * पढमसमय किट्टीवेदगस्स जा कोहपढमसंगह किट्टी तिस्से असंखेज्जदिभागो विणासिज्जदि । श्रेणिप्ररूपणाको बन्धसे निर्वश्यमान पूर्व कृष्टियोंकी कही गयी विधिके अनुसार ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संग्रह कृष्टिके नीचे निर्वर्त्यमान अपूर्वं कृष्टियोंमें पूर्वोक्त क्रमके अनुसार प्रदेशनिषेक करके वहाँसे अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टि से पूर्व जघन्य कृष्टिमें असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंजको सींचता है । पुनः वहाँसे अपकर्षण उत्कर्षण भागहारमात्र अध्वान ऊपर चढ़कर वहांपर स्थित हुई पूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक असंख्यात भागहीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । तत्पश्चात् वहाँ कृष्टि- अन्तराल में निर्वर्त्यमान अपूवं कृष्टिमें असंख्यातगुणे प्रदेश पुंज को निक्षिप्त करता है । तत्पश्चात् असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । तत्पश्चात् अनन्त भागहीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । इस प्रकार इत्यादि क्रमसे सन्धियोंको जानकर विवक्षित संग्रह कृष्टिकी समाप्ति तक ले जाना चाहिए। इससे उपरिम संग्रह कृष्टियों में भी इसी विधानके अनुसार श्रेणिप्ररूपणा करनी चाहिए । $ ६५६. अथवा सत्कर्मके असंख्यातवें भागप्रमाण नवकबन्धके प्रदेशपुंज से निर्वत्र्त्यमान पूर्व कृष्टियों की जिस प्रकार अनन्तगुणहीन- अनन्तगुणहोनके क्रमसे सूत्र में निबद्ध श्रेणिप्ररूपणा की उसी प्रकार यहाँ चिरकालीन सत्कर्मसे असंख्यातगुणहीन संक्रम्यमाण प्रदेशपुंज से निर्वर्त्यमान अपूर्व कृष्टियों की दोनों की ही सन्धियोंमें अनन्तगुणहीन अधिकके क्रमसे श्रेणिप्ररूपणा व्यामोहको छोड़कर करनी चाहिए, क्योंकि सूत्र के अनुसार यही अर्थं प्रधानरूपसे उपलब्ध होता है । इस प्रकार कृष्टिवेदक के प्रथम समयकी यह सम्पूर्ण प्ररूपणा द्वितीयादि समयों में भी इसी प्रकार कहनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है । अब कृष्टिवेदक के प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक समय में विनश्यमान कृष्टियों के अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * कृष्टिवेदक के प्रथम समयमें जो क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टि है उसका असंख्यातवाँ भाग विनष्ट होता है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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