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________________ २६४ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे ___६६५७. विसोहिपाहम्मेण णिरुद्धसंगहकिट्ठोए अग्गकिट्टिप्पडि असंखेजदिभागमेत्तकिट्टीओ अणुसमयोवट्टणाघादेण विणासेदि ति वुत्तं होदि। एवाओ च पढमसमये विणासिज्जमाणकिट्टीओ उवरिमासेससमएसु विणासिज्जमाणकिट्टीहितो बहुगोओ ति जाणावणमिदमाह * किट्टीओ जाओ पढमसमये विणासिज्जंति ताओ बहुगीओ। 5 ६५८. कुवो ? सयलकिट्टीणमसंखेज्जविभागपमाणत्तावो। * जाओ विदियसमये विणासिन्जंति ताओ असंखेज्जगुणहीणाओ। ६६५९. जइ वि विदियसमये अणंतगुणविसोहीए वदि तो वि पढमसमये विणासिज्जमाणकिट्टीहितो असंखेज्जगुणहोणाओ चेव किट्टोओ तम्मि समये विणासेवि, घादिवसेसाणुभागघावहेदूणं विसोहीणमेत्थतणीणं तहा चेव पवुत्तिणियमदसणादो। एवं तवियादि समयेसु वि एसो चेव अणुसमयोवट्टणाकमो णेदव्यो त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * एवं ताव दुचरिमसमयअविणट्ठकोहपढमसंगहकिट्टि ति । ६६६०. एवमसंखेज्जगुणहोणकमेण ताव किट्टोओ सगकिट्टीवेदगकालभंतरे विणासेमाणो गच्छदि जाव सगविणासणवादुचरिमसमओ त्ति; चरिमसमए अविणटुकोहपढमसंगहकिट्टीणवकबंधुच्छिटावलियवज्जाणमणुप्पादाणुच्छेवसरूवेण विणासवंसणादों। संपहि किट्टीवेदगपढमसमय ६६५७. विशुद्धिके माहात्म्यवश विवक्षित संग्रह कृष्टिको अग्र कृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको अनुसमय अपवर्तनाघात द्वारा विनष्ट करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और प्रथम समयमें विनश्यमान ये कृष्टियां अगले समयोंमें विनश्यमान कृष्टियोंसे बहुत हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रको कहते हैं ॐ जो कृष्टियां प्रथम समयमें विनाशको प्राप्त होती हैं वे बहुत हैं। ६६५८. क्योंकि वे समस्त कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। * जो कृष्टियां प्रथम समयमें विनाशको प्राप्त होती हैं वे असंख्यातगुणो हीन हैं। ६६५९. यद्यपि दूसरे समयमें यह क्षपक अनन्तगुणो विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है तो भी प्रथम समयमें विवश्यमान कृष्टियोंसे असंख्यातगुणी हीन कृष्टियोंको ही उस समयमें विनष्ट करता है, क्योंकि घात होनेसे शेष रहे अनुभागघातके हेतुरूप यहाँ सम्बन्धी विशुद्धियोंका उसी प्रकारसे ही प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है। इसी प्रकार तृतीय आदि समयोंमें भी इसी प्रकार अनुसमय अपवर्तनाका क्रम जानना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * इसी प्रकार यह क्रम अविनष्ट कोषको प्रथम संग्रह कृष्टिके द्विचरम समय तक जानना चाहिए। ६६६०. इस प्रकार असंख्यातगुणहीन क्रमसे कृष्टियोंको अपने वेदक कालके भीतर विनष्ट करता हमा अपने विनाश करनेके कालके विचरम समय तक जाता है, क्योंकि चरम समयमें विनाशको नहीं प्राप्त हुए क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिसम्बन्धी नवकबन्ध उच्छिष्टावलिके सिवाय शेषका अनुत्पादानुच्छेदस्वरूपसे विनाश देखा जाता है। अब कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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