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________________ १७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बाओ' असामण्णद्विदीओ तासि गहिदसलागाओ विसेसाहियाओ त्ति वृत्तं होइ । एत्थ वि विसेस - पमाणं पुण्यं व वत्तध्वं । एवमेगादिएगुत्तरवड्डीए ट्ठिदाणमसामण्गद्विदिवियप्पाणं गहिदसलागाओ विसेसाहियाओ होदून गच्छति जाव आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतद्धाणं गंतूण तदित्यवियप्पस्स ठदिसलागाओ दुगुणमेत्तोओ जादाओ ति एदमेगं दुगुणवडिट्ठाणंतरं णाम । एवमेदं दुगुणवड्डिअद्वाणमवद्विदं कारण दुगुण- दुगुणमेत्तविसेसपडिबद्धाओ आवलियाए 'असंखेज्जदिभागमेत्तदुगुण• वड्डीओ दवाओ । तदो तम्मि उद्देसे सयलवियप्पाणमसंखेज्जदि भागभूदे आवलियाए असंखेज्जदिभागे जवमज्झं होदित्ति जाणावणट्ठमिदमाह * आवलियाए असंखेज्जदिभागे जवमन्झं । ४७५. आदीदोप्पहूडि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तगुणहाणिगन्भे आवलियाए असंखेज्जविभागे गवे तदो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणमसामण्णद्विदीर्ण ठविदसलागाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तोओ घेतूण जवमज्झमेत्थ जादमिदि वृत्तं होइ । एत्तो उवरि जेणेव कमेण वडिदाओ तेणेव कमेण होयमाणाओ गच्छंत जाव जवमज्झादो उवरिमसंखेज्जाओ गुणहाणीओ गंतूण पढमवियप्पसलागाह समाणाम होदूण पुणो वि हीयमाणाओ तत्तो असंखेज्जाओ गुणहाणीओ गंतॄण चरिमवियप्पसलागपमाणं पत्ताओ त्ति चरिमवियप्पसलागाओ वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ चेव होहूण सव्वत्थोवाओ ददृव्वाओ । एत्थासेसा से सदिगंतर परिसुद्धी 'तीन-तीन करके असामान्य स्थितियां विशेष अधिक हैं' ऐसा कहनेपर तीन-तीन होकर जो असामान्य स्थितियाँ अवस्थित हैं उनकी ग्रहण की गयी शलाकाएं विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है | यहाँपर भी विशेषका प्रमाण पहले के समान कहना चाहिए। इस प्रकार एकसे लेकर आगे एक-एककी वृद्धि द्वारा स्थित असामान्य स्थितियोंके भेदोंकी ग्रहण की गयी शलाकाएँ विशेष अधिक होकर तब तक जाती हैं जब जाकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वहाँ स्थित भेदको प्राप्त शलाकाएं दूनी हो जाती हैं। इस प्रकार यह एक द्विगुणवृद्धि स्थानान्तर है । इस प्रकार इस द्विगुणवृद्धिअध्वानको अवस्थित करके द्विगुण - द्विगुणप्रमाण विशेषोंसे सम्बद्ध आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां ले जानी चाहिए। अतः उस स्थानपर समस्त भेदोंके असंख्यातवें भागरूप आवलिके असंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है इस बात का ज्ञान कराने के लिए इस सूत्र को कहते हैं * आवलिके असंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है । ४५. आदिसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानिके अन्तर्गत आवलिके असंख्यातवें भागके जानेपर वहाँसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण असामान्य स्थितियों की आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थापित शलाकाओंको ग्रहण कर यहां यवमध्य हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे आगे जिस क्रमसे वृद्धि हुई है उसी क्रमसे इससे आगे जिस क्रमसे वे स्थितियाँ बढ़ी हैं उसी क्रमसे वे होयमान होकर तब तक जाती हैं जब जाकर यवमध्यसे ऊपर असंख्यात गुणहानियाँ जाकर प्रथम भेदकी शलाकाओं के समान होकर फिर भी होयमान होती हुईं वहीं असंख्यात गुणहानियाँ जाकर अन्तिम भेदसम्बन्धी शलाकाओंके प्रमाणको प्राप्त होती हैं । इस प्रकार अन्तिम भेदसम्बन्धी शलाकाएँ भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होकर सबसे १. आ. प्रतो द्विदीओ इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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