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________________ २४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 5६२२. बज्झमाणपदेसग्गणिव्यत्तिज्जमाणतदिय-चदुसु चेव पढमसंगहकिट्टीसु संभवो, णाणत्थे त्ति वुत्तं होदि । कुदो एस णियमो चे? ण, तत्तो अण्णासिमेदम्मि विसये बंघसंभवाणुव. लंभादो। संपहि तासि बज्झमाणपदेसग्गेण णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवकिट्टीणं कदमम्मि ओगासे णिवत्ती होदि ति आसंकाए णिरारेगीकरणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो * ताओ कदमम्मि ओगासे ? ६६२३. किं ताव सगपदेसग्गमुवलंभादो, आहो तदवयवकिट्टोणं अंतरंतरेसु ति पुच्छिदं होदि । संपहि एदिस्से पुच्छाए णिण्णयविहाण?मुत्तरसुत्तणिद्देसो * एक्कक्किस्से संगहकिट्टीए किट्टीअंतरेसु । ६६२४. संगहकिट्टीणमंतरेसु ताव बज्झमाणपदेसग्गेण णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवकिट्टोणं णत्यि संभवो, चदुहं पढमसंगहकिट्टीणं मज्झिमकिट्टीसहवेण पयट्टमाणणवकबंधाणुभागस्स तत्तो हेट्ठा पवुत्तिविरोहावो। तदो एक्केक्किस्से संगहकिट्टीए अवयवकिट्टोणमंतरेसु बज्झमाणपदेसग्गेणापुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तेदि ति सिद्धं । संपहि किमविसेसेण एक्केक्किस्से संगहकिट्टीए सवकिट्टीअंतरेसु तासि संभवो आहो अत्थि को वि विसेससंभवो त्ति आसंकाए पुच्छासुत्तमाह ६६२२. क्योंकि वे बध्यमान प्रदेशपुंजसे निष्पन्न होनेवाली प्रथम संग्रह कृष्टियोंमें सम्भव हैं, अन्य कृष्टियोंमें नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यह नियम किस कारणसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि उन चारोंको छोड़कर अन्य संग्रह कृष्टियोंका इस स्थानमें बन्ध सम्भव नहीं उपलब्ध होता। अब बध्यमान प्रदेशपुंजमेंसे निष्पन्न होनेवाली उन अपूर्व कृष्टियोंकी किस अवकाश ( अन्तराल ) में निष्पत्ति होती है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * उन अपूर्व कृष्टियोंको किस अवकाश ( अन्तराल ) में निष्पन्न करता है ? ६६२३. क्या जहाँसे अपना प्रदेशपुंज उपलब्ध होता है वहींसे निष्पन्न करता है या उनकी अवयव कृष्टियोंके उत्तरोत्तर अन्तरालोंमें निष्पन्न करता है इस प्रकार यह पृच्छा की गयी है। अब इस पृच्छाके निर्णयका निर्देश करनेके लिए आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं * एक-एक संग्रहकृष्टिके अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें उन अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है। ६ ६२४. संग्रह कृष्टियोंके अन्तरालोंमें तो बध्यमान प्रदेशपुंजमेंसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंको निष्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि चारों प्रथम संग्रह कृष्टियोंके मध्यम कृष्टिरूपसे प्रवर्तमान नवकबन्धसम्बन्धी अनुभागका उससे नीचे प्रवृत्ति होनेमें विरोध आता है। इसलिए एक-एक संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें बध्यमान प्रदेश-पुंजमेंसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है यह सिद्ध हुआ। अब क्या अविशेषरूपसे एक-एक संग्रह कृष्टिकी सब अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें उनका प्राप्त होना सम्भव है या कोई विशेष सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर पृच्छसूत्र कहते हैं
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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