________________
खवगसेढोए णवमीए मूलगाहाए विदियभासगाहा
२३५
वट्टमाणो सादावेदणीयं सभणामं जसगित्तिसण्णिदमुच्चागोदं च एवमेदासि पयडीणं दिदिबंधं करेमाणो 'बंधदि च सदसहस्से दिदि' संखेज्जवस्ससदसहस्सपमाणमेदासि दिदि बंधदि त्ति सुत्तत्थसंबंधो । एत्थतण 'च' सद्देण पुण तिण्हं घादिकम्माणं संखेज्जवस्ससहस्समेत्तो मोहणीयस्स च चत्तारिमासमेत्तो दिदिबंधो सूचिदो त्ति दट्रव्यो। 'अणुभागे सुदुक्कस्सं' एदेण सुत्तावयवेण पुवत्ताणं तिहमघादिकम्माणं पयडीणमादेसुक्कस्सो अणुभागबंधो जाणाविदो। 'तु' सद्दो विसेसणट्ठो होदूण पृव्वुत्ताणं पसत्थपयडीणमोघुक्कस्साणुभागबंधणिरायरणदुवारेणादेसुक्कस्साणुभागबंधसंभवं सूचेदि त्ति दट्ठन्वं, सुहुमसांपराइयचरिमसमये तासिमोघुक्कस्साणुभागबंधदसणादो। 'तु' सद्देणेव घादिकम्माणं पि अणुभागबंधणिद्देसो सूचिदो त्ति घेत्तव्वो। अधवा ईसदुक्कस्सं सुदुक्कस्सं तप्पाओग्गुक्कस्समणुभागमेदेसि सुहाणं कम्माणं बंधदि ति वक्खाणेयव्वं; ईषच्छब्दस्यादिलोपे उकारादेशे च कृते 'सुदुक्कस्स' निर्देशसिद्धेः। वर्तमान सातावेदनीय, शुभनाम, यशःकीति और उच्चगोत्र इस प्रकार इन प्रकृतियोंके स्थितिबन्धको करता हुआ 'बंधदि च सहसहस्से टिदि' संख्यात शतसहस्र वर्षप्रमाण इन कर्मों की स्थितिको बांधता है यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । यहाँपर आये हुए 'च' शब्दसे तोन घातिकर्मीको संख्यात हजार वर्षप्रमाण और मोहनीयकमंकी चार महाप्रमाण स्थितिको बाँधना है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। 'अणुभागे सुदुक्कस्सं' इस सूत्रवचनके अनुसार पूर्वोक तीन अघाति कर्मोंके आदेश उत्कृष्ट अनुभागबन्धका ज्ञान कराया गया है। 'तु' शब्द विशेषणार्थक होकर प्रशस्त प्रकृतियोंके ओघ उत्कृष्ट अनुभागबन्धका निराकरण द्वारा आदेश उत्कृष्ट अनुभागबन्धके सम्भवको सूचित करता है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समय में उन प्रकृतियोंका ओघ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध देखा जानेसे 'तु' शब्दके द्वारा ही घातिकर्मोके भी अनुभागबन्धका निर्देश सूचित किया गया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अथवा 'सुदुक्कस्सं का अर्थ है 'ईसदुक्कस्सं' उसके अनुसार इसका अर्थ होता है कि इन शुभ कर्मों के तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागको बांधता है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि 'ईषत्' शब्दके आदि अक्षर 'ई' का लोप करके 'उकार' का आदेश करनेपर 'सुदुक्कस्स' निर्देशकी सिद्धि होती है।
विशेषार्थ-'सुदुक्कस्सं' पदका रूपान्तर 'ईसुदुक्कस्सं' व्याकरणके नियमानुसार इस प्रकार हो गया है-'ईषत् + उत्कृष्ट ये दो शब्द हैं। इनमें से 'ईषत्' पदके आदि अक्षर 'ई' का 'कीरइ पयाण काण वि अइमझंतवण्णसरलोवो' इस सूत्रके नियमानुसार लोप होकर षत्' शेष रहा । पुनः
वग्गे वग्गे आई अवट्ठिया दोणि जे वण्णा ।
ते णियय-णिययवग्गे तइअत्तणयं उवणमंति ।। उक्त सूत्रके नियमानुसार 'ष' के स्थानमें 'स' और 'त्' के स्थानमें 'द्' हो जानेसे 'सद्' शब्द बन गया । पुनः
एए छच्च समाणा दोणि असंज्झक्खरा सरा अट्ट ।
अण्णोण्णस्सविरोहा उति सव्वे समाएस ॥ इस सूत्रके नियमानुसार 'सद्' के 'स' में अवस्थित 'अ' के स्थानमें 'उ' आदेश हो जानेपर 'सुद्' रूप सिद्ध हुआ। पुनः 'सुद् + उक्कस्स =सुदुक्कस' पाठ निष्पन्न हो गया है। यहां इसी प्रकार प्राकृत व्याकरणके नियमानुसार 'उत्कृष्ट' पदके स्थानमें 'उक्कस्स' पद निष्पन्न हुआ है इतना और समझ लेना चाहिए।