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________________ खवगसेढोए सुहुमसांपराइयकिट्टीकरणपरूवणा २९५ ६७३७. लोभवेदगद्धाए पढमतिभागे पढमसंगहकिट्टिमणंतरपरूविदेण कमेण वेदिदूण तदो से काले तित्से चेव बिदिय-तिभागपढमसमये वट्टमाणो विदियसंगहकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण सगवेवगकालादो आवलियम्भहियं कादूण उदयादिगुणसेढोए लोभविदियसंगहकिट्टीए पढमदिदि समुप्पाएदि ति वुत्तं होइ । एवं च पढमट्टिदि कादूण विदियसंगहकिट्टि वेदेमाणो तप्पढमसमये चेव सहुमसांपराइयकिट्टोओ कादुमाढवेदि त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ___ * ताधे चेव लोभस्स विदियकिट्टीदो च तदियकिट्टीदो च पदेसग्गमोकडियूण सुहुमसापराइयकिटीओ पाम करेदि । ६७३८. तम्मि चेव लोभवेदगद्धा विदियतिभागपढमसमये लोभविदियसंगहकिट्टि वेदेमाणो लोभविदियं च तदियसंगहकिट्टीहितो पदेसग्गस्सासंखेज्जविभागमोकड्डियूण सहुमसांपराइयकिट्टीओ णाम करेदि, विदियतिभागम्मि सुहमसांपराइयकिट्टीओ अकुणमाणस्स तदितिभागे सहमकिट्टीवेदग. भावेण परिणममाणाणुववत्तोदो ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ। ण च तदियवारकिट्टीवेदगद्धाए सुहमसांपराइयकिट्टीणं कारगत्तमासंकणिज्ज; सहमकिट्टीपरिणामेण विणा सगसहवेणेव तिस्से उदयपरिणामाणवलंभादो । सुहमसापराइयकिट्टीणं किं लक्खणमिदि चे बावरसांपराइयकिट्टोहितो अणंतगुणहाणीए परिणमिय लोभसंजलणाणुभागस्सावट्ठाणं सुहुमसांपराइयकिट्टोणं लक्खणमवहारे. ६७३७. लोभ संज्वलन वेदककालके प्रथम तीसरे भागमें प्रथम संग्रहकृष्टिका अनन्तर कहे गये क्रम के अनुसार वेदन करके उसके बाद तदनन्तर समयमें उसीके दूसरे विभागके प्रथम समय में विद्यमान यह क्षपक जीव दूसरी संग्रह कृष्टिके प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके तथा उसे अपने वेदक कालसे एक आवलि अधिक करके उदयादि गुणश्रेणीरूपसे लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिको प्रथम स्थितिको उत्पन्न करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और इस प्रकार प्रथम स्थिति करके दूसरी संग्रह कृष्टिको वेदन करनेवाला वह क्षपक जीव उसके प्रथम समयमें ही सुक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको करनेके लिए आरम्भ करता है इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * तथा उसी समय लोभ संज्वलनकी दूसरी कृष्टिमेंसे और तीसरी कृष्टिमेंसे प्रदेशपंजका अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्परायिक नामक कृष्टियोंको करता है। -६७३८. उसी लोभ वेदक कालके दूसरे विभागके प्रथम समयमें लोमकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला जीव लोमकी द्वितीय संग्रहकृष्टिका और तृतीय संग्रहकृष्टिमें-से प्रदेशपंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्परायिक नामवाली कृष्टियोंको करता है, क्योंकि द्वितीय त्रिभागमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको नहीं करनेवाले जोवके तृतीय त्रिभागमें सूक्ष्म कृष्टियों के वेदकरूपसे परिणमनको उत्पत्ति होती है यह सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। यहाँपर तीसरी बार कृष्टिके वेदक काल में सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों के कारकपनेकी आशंका नहीं कर चाहिए, क्योंकि सूक्ष्मकृष्टियोंके परिणामके बिना अपने रूपसे ही उसके उदयका परिणाम नहीं उपलब्ध होता। शंका-सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंका क्या लक्षण है ?
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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