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________________ aaगढीए विदियमूलगाहा १६६. किमहमेसा विदियमूलगाहा समोइण्णा त्ति चे ? वुच्चदे - किट्टीणं ठिदि- अणुभागेसु अद्वाण विसेसवे हमेसा गाहा समोइण्णा । तं जहा - 'कदिसु य अणुभागेसु च एवं भणिदे त्यत्सु अणुभागाविभागपडिच्छेदेसु कदमा किट्टी बट्टदे, कि संखेज्जेसु आहो असंखेज्जेमु कि अति पुच्छा कदा होदि । एसा च पुच्छा संगहकिट्टीसु तदवयव किट्टीसु च जोजेयव्वा । 'द्विदीसु वा केतिया का किट्टों एवं भणिदे केत्तियमेत्तीस वा द्विदोस कदमा किट्टी होदि, किस्से दो ति वा एवं गंतूण कि संखेज्जासु असंखेज्जासु वा त्ति पुच्छा कदा होदि । एत्थ वि संग किट्टीणं तदवयव किट्टीणं च पादेक्कमेसो पुच्छा हिसंबंधों जोजेयवो । ६३ एवमेण सुतावयवेण निछिट्ठाए द्विदिविसय पुच्छाए पुणो वि विसेसियण परूवणट्ठ गाहापच्छद्धमोइण्णं - 'सव्वासु वा द्विदीसु च०' चदुण्हं संजलणाणं जहा संभवं पढमविदियकि संभवत तत्थ कि सब्वासु चैव तदवयद्विदीसु अविसेसेण सव्वा किट्टी संभवइ, आहो ण सव्वा द्विदी सम्वासि किट्टीणमत्थि संभवो । किंतु एक्के विकस्से द्विदीए एक्केवका चेव किट्टी होण पादेवकमसंकिण्णसरूवेण तत्थ तदवद्वाणसंभवादो त्ति । एवमेसा गाहा पुच्छासुत्तं होंदूण सामणिण्णयपरूवणाए भासगाहाए पडिबढाए बीजपदभावेणावद्विदा दट्ठव्वा । संपहि एवीए सुत्तगाहाए सूचिदत्यविहासणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तयारो तत्थ पडिबद्धाणं दोन्हं भासगाहाणमत्थित्तपरूवणमुत्तरं पबंधमाह - * एदिस्से वे भासगाहाओ । ६ १६६. शंका — यह दूसरी मूल गाथा किस लिए अवतीर्ण हुई है ? समाधान कहते है -स्थितियों में और अनुभागों में कृष्टियोंके अवस्थानविशेषका अनुसन्धान करने के लिए यह गाथा अवतीर्ण हुई है। वह जैसे – 'कदिसु अणुभागेसु च' ऐसा कहनेपर अनुभाग के कितने अविभागप्रतिच्छेदों में कौन कृष्टि अवस्थित है. क्या संख्यात अविभागप्रतिच्छेदों में या असंख्यात अविभागप्रतिच्छेदों में या अनन्त अविभागप्रतिच्छेदों में इस प्रकार यह पृच्छा को गयी है । और यह पृच्छा संग्रहकृष्टियों में और उनकी अवयव कृष्टियों में योजित कर लेनी चाहिए । 'द्विदो वा केतियासु का किट्टी' ऐसा कहनेपर कितनी स्थितियों में कौन कृष्टि अवस्थित है ? क्या एक स्थिति में, दो स्थितियों में या तीन स्थितियों में इस प्रकार जाकर क्या संख्यात स्थितियों में या असंख्यात स्थितियों में यह पृच्छा को गयी है । यहाँपर भी संग्रह कृष्टियों और उनकी अवयव कृष्टियों में से प्रत्येक के साथ इस पृच्छाका सम्बन्ध कर लेना चाहिए । इस प्रकार इस सूत्र वचन द्वारा स्थितिविषयक पृच्छाके निर्दिष्ट किये जानेपर फिर भी विशेष कथन करनेके लिए गाथांका उत्तरार्धं अवतीर्ण हुआ है- 'सव्वासु वा द्विदीसु च० ' संज्वलनोंकी यथासम्भव कृष्टिसम्बन्धी प्रथम स्थिति और द्वितीयस्थिति सम्भव होनेपर उनमें से उनकी सभी अवयव स्थितियों में भेद किये बिना क्या सब कृष्टियों सम्भव हैं या सब स्थितियों में सब कृष्टियां सम्भव नहीं हैं, किन्तु एक-एक स्थिति में एक-एक ही होकर कृष्टि रहती है, क्योंकि अलगअलग असंकीर्णरूप से ही उन स्थितियों में उन कृष्टियोंका अवस्थान सम्भव है । इस प्रकार यह गाथा पृच्छासूत्र होकर भाष्यगाथासे प्रतिबद्ध शेष समस्त निर्णयकी प्ररूपणा के द्वारा बोजपदरूपसे अवस्थित जाननी चाहिए। अब इस सूत्रगाथा द्वारा सूचित हुए अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए चूर्णिसूत्रकार उससे सम्बन्ध रखनेवाली दो भाष्यगाथाओं के अस्तित्वका कथन करने के लिए आगे प्रबन्धको कहते हैं * इस मूल गाथाकी दो भाष्य गाथाएँ हैं ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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