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________________ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे 5१६७. सुगम। * मूलगाहापुरिमद्धे एक्का भासगाहा । 5 १६८. मूलगाहापुरिमद्धे पडिबद्धा तत्य इमा पढमा भासगाहा दटुव्वा त्ति भणिदं होवि । * तिस्से समुक्कित्तणा। 5 १६९. सुगम। (११४) किट्टी च द्विदिविसेसेसु असंखेजेसु णियमसा होदि । णियमा अणुभागेसु च होदि हु किट्टी अणतेसु ॥१६७॥ ___$ १७०. संपहि मूलगाहा पुरिमद्धविहासण?मोइण्णाए एविस्से पढमभासगाहाए अत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-'किट्टी च०' किट्टो खलु टिदिविसेसेसु ठिविभेदेसु असंखेज्जेसु असंखेज्जपमाणावच्छिण्णेसु णियमसा णिच्छयेणेव होदि, चतुण्डं संजलणाणं विवियटिदी संखेज्जावलियपमाणा अत्यि, तत्थ एक्केक्किस्से दिदीए अप्पप्पणो सवासिमेव संगहकिट्टीणं तदवयवकिट्टोणं च संभवे पडिसेहो णत्यि, तेण कारणेण सव्वा किट्टी सव्वेसु द्विविविसेसेसु णियमा समवट्टिदा दव्वा त्ति वुत्तं होइ। एत्थ वेदिज्जमाणसंगहकिट्टीए पढमट्टिदीए वि सव्वासु ट्ठिदोसु संभवो एदेणेव सुत्तावयवेण संगहिदो त्ति बटव्यो। ___ 'णियमा अणुभागेसु य' एवं भणिवे एक्केक्का संगहकिट्टी तदवयवकिट्टी वा अणंतसंखावच्छिण्णेसु अणुभागाविभागपडिच्छेवेसु कट्टवि त्ति घेत्तव्वं । कि कारणं? एक्केक्किस्से किट्टीए अणंत ६१६७. यह सूत्र सुगम है। * मूल गाथाके पूर्वाधसे सम्बन्ध रखनेवाली एक भाष्य गाथा है। 5 १६८. मूलगाथाके पूर्वार्धसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रकृतमें यह प्रथम भाष्यगाथा है। * अब उसकी समुत्कीर्तना करते हैं। 5 १६९. यह सूत्र सुगम है। * ११४. असंख्यात स्थितिविशेषोंमें सभी कृष्टियां नियमसे होती है। उसी प्रकार अनन्त अनुभागोंमें प्रत्येक संग्रह कृष्टि और अवयव कृष्टि नियमसे होती है ॥१६७॥ ६१७०. अब मूल गाथाके पूर्वाधको विभाषा करनेके लिए अवतीर्ण हुई इस प्रथम गाथाके अर्थका कथन करेंगे। वह जैसे-'किट्टो च०' प्रत्येक कृष्टि 'असंखेज्जेसु' असंख्यात संख्यासे युक्त 'टिदिविसेसेसु' स्थितिभेदोंमें 'णियमसा' नियमसे होती है। चारों संज्वलनोंकी द्वितीय स्थिति संख्यात आवलिप्रमाण होती है। उनमें से एक-एक स्थितिमें अपनी-अपनी सभी संग्रह कृष्टियां और उनकी अवयव कृष्टियां सम्भव हैं इसमें निषेध नहीं है। इस कारण सभी कृष्टियां सभी स्थितिविशेषोंमें नियमसे अवस्थित जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँपर वेदी जानेवाली संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थिति भी सभी स्थितियों में सम्भव है इस बातका इसी सूत्रवचन द्वारा संग्रह कर लिया गया जानना चाहिए। . विशेषार्थ-जिस समय जिस संज्वलन कषाय का उदय होता है उस समय उसकी प्रथम स्थिति होकर उसका उदय होता है। अन्य कालमें वह मात्र द्वितीय स्थितिमें हो अवस्थित रहतो है। शेष कथन सुगम है। ___ 'णियमा अणुभागेसु य' ऐसा कहनेपर एक-एक संग्रह कृष्टि और उनकी अवयव कृष्टि अनुभागके अनन्त संख्यासे युक्त अविभागप्रतिच्छेदोंमें रहती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए,
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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