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________________ २०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे स्वंतर मक्खवगस्स अभवसिद्धियपाओग्गविसये वट्टमाणस्स णावव्यमिदि वृत्तं होइ । लवगस्स पुणे मुक्कस्तरं संभवद्द, उक्कस्सेण वि तत्थावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीणं चैव असामण्णहिदीण मंतरभावेण सामण्ण द्विदीसु वि पवृत्तिदंसणावो त्ति इममत्थविसेसमुत्तरसुतेण णिद्दिस -. * खवगस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागो अंतरं । ६ ५३७. गतार्थमेतत्सूत्रम् । * इमस्स पुण सामण्णाणं द्विदीणमंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ६५३८. गयत्थमेदं पि सुत्तं; पुण्वुत्तस्सेवत्थस्स पुणो वि उवसंहारमुहेण परूवणादो। एवमेत्तिएण पबंधेण समयबद्धसेसयाणि अस्सियूण चउत्यभासगाहाए अत्थविहासणं कावण संपहि भवबद्धसेसयाणि वि अस्सियूण सामण्णासामण्णद्विदीणमेवं चेव पयदपरूवणा अणुगंतव्या सि जाणावणमुत्तरसुत्तं भणइ - * जहा समयपबद्ध से सयाणि तहा भवबद्धसेसाणि कादव्वाणि । ६५३९. सुगमं । संपहि खवगपाओग्गपरूवणाए भण्णमाणाए चउत्थगाहासुत्ते एगावि गुत्तरमेण असंखेज्जाओ असामण्णद्विदीओ उल्लंघियूण तवो अंतरचरिमद्विदोदो उवरिमाणंतरद्विदिप्पड गादिगुत्तरवडिवे असंखेज्जेसु द्विदिविसेसेसु समयपबद्धसेसयाणि भवबद्धसे सयाणि उत्कृष्ट अन्तर अभव्यसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें विद्यमान अक्षपकके जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु क्षपकके यह उत्कृष्ट अन्तर सम्भव नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट अन्तर होवे तो भी वहाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही असामान्य स्थितियोंके अन्तररूपसे उसकी सामान्य स्थितियों में ही प्रवृत्ति देखी जाती है इस प्रकार इस अर्थविशेष को आगे के सूत्र द्वारा दिखलाते हैं * क्षपकके यह उत्कृष्ट अन्तर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । $ ५३७. यह सूत्र गतार्थ है । * परन्तु अक्षपक के सामान्य स्थितियोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। ६५३८. यह सूत्र भी गतार्थ है, क्योंकि इस द्वारा पूर्वोक्त अर्थको ही पुनरपि उपसंहार करते हुए प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा समय प्रबद्धशेषोंका आलम्बन लेकर चौथी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा करके अब भवबद्धशेषोंका भी प्राश्रय करके सामान्य और असामान्य स्थितियोंकी इसी प्रकार प्रकृतप्ररूपणा जाननी चाहिए इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगे सूत्रको कहते हैं * जिस प्रकार समयप्रबद्धशेषोंकी सामान्य और असामान्य स्थितियोंके आलम्बनसे प्ररूपणा की है उसी प्रकार भवबद्धशेषोंकी भी वह प्ररूपणा करनी चाहिए । ६५३९. यह सूत्र सुगम है। अब क्षपकप्रायोग्य प्ररूपणा के कथनमें चौथी भाष्यगाथासूत्रमें एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे असंख्यात असामान्य स्थितियों को उल्लंघन कर तत्पश्चात् अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थितिसे उपरिम अनन्तर स्थिति से लेकर एकसे लेकर एक-एकके क्रमसे afa करने पर असंख्यात स्थितिविशेषों में समयबद्धशेष और भवबद्धशेष होते हैं इस प्रकार इस
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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