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________________ १२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे परत्थाणगुणगाराणं संगहकिट्टीअंतरसण्णा। सत्थाणगुणगाराणं च किट्टीअंतरसण्णा त्ति एसो एत्य सुत्तत्थसंगहो। * एदीए णामसण्णाए किट्टीअंतराणं संगहकिट्टीअंतराणं च अप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। ३२. एदीए अणंतरपरूविदाए णामसण्णाए सुणिग्णीदसरूवाणं दुविहाणं पि किट्टीअंतराणमेण्हिमप्पाबहुअमोदारइस्सामो त्ति भणिदं होइ। * तं जहा। $ ३३. सुगमं। * लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए जहण्णय किट्टीअंतरं थोवं ।। $ ३४. लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए जहण्णकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा अप्पणो विदियकिट्टीपमाणं पावदि सो गुणगारो जहाणकिट्टीअंतरं णाम । तं सव्वत्थोवमिदि वुत्तं होइ। विशेषताको प्राप्त हुए जो अन्तर हैं उनकी संग्रहकृष्टि अन्तर संज्ञा है। यहाँपर भी पहले के समान उनसे सम्बन्ध रखनेवाले गुणकारोंका संग्रह करना चाहिए। इस कारण परस्यान गुणकारोंको संग्रहकृष्टि अन्तर संज्ञा है और स्वस्थान गुणकारोंकी कृष्टि अन्तर संज्ञा है यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। विशेषार्थ-यह पूर्व में ही बतला आये हैं कि चारों संज्वलनोंमें से प्रत्येक कषायको तीनतोन संग्रह कृटियां होकर भी प्रत्येक संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियां अनन्त होती हैं। इस प्रकार जो ये सब कृष्टियां हैं उनमें दो संग्रह कृष्टियोंके मध्य जो गुणकार पाया जाता है उनके उस गुणकारको ही संग्रहकृष्टि अन्तर कहते हैं । यतः यह गुणकार गुणित क्रमसे ही प्राप्त होता है, अतः उनके गुणकार भी उतने ही जानने चाहिए। कुल संग्रह कृष्टियां बारह हैं अतः उनके मध्यमें प्राप्त होनेवाले इन संग्रह कृष्टियोंके अन्तरोंका प्रमाण ग्यारह होता है। अतः इनको यह संग्रह कृष्टि अन्तर संज्ञा है। यहां इतना पुनः स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि एक संग्रहकृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर दूसरी संग्रहकृष्टिको प्राप्त होती है उसकी परस्थान गुणकार संज्ञा और एक अन्त९ कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर दूसरी कृष्टिको प्राप्त होती है उसकी स्वस्थानगुणकार संज्ञा है। इसीलिए प्रकृतमें गुणकारको कारण और अन्तरको कार्य कहा गया है। के इस प्रकार की गयो इस नामसंज्ञाके द्वारा कृष्टि अन्तरों और संग्रह कृष्टि अन्तरोंके अल्पबहुत्वको बतलावेंगे। ६३२. इस प्रकार अनन्तर पूर्व कही गयो इस नामसंज्ञाके द्वारा जिनके स्वरूपका अच्छी तरहसे निर्णय हो गया है ऐसे इन दोनों ही प्रकारके कृष्टिअन्तरोंके अल्पबहुत्वका इस समय अवतार करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * वह जैसे 5३३. यह सूत्र सुगम है। के लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका जघन्य अन्तर सबसे अल्प है। ३४. लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिको जघन्य कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणित करनेपर वह अपनी दूसरी कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त होती है वह गुणकार जघन्य कृष्टि अन्तर संज्ञावाला होता है । वह सबसे स्तोक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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