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________________ खवगसेढीए किट्टीअप्पाबहुअपरूवणा * अप्पाबहुअस्स लहुआलावसंखेवपदत्थसण्णाणिक्खेवो ताव कायव्यो। 5 २९. पयदप्पाबहुअस्स बहुवित्थरपरिहारेण लहुमालावसंखेवविहाणटुमेसो ताव पयदत्थस्स सण्णाविसेसणिक्खेवो कायबो, अण्णहा एक्स्सप्पाबहुअस्स संखेवेण परूवणोवायाभावादो ति भणिदं होइ । एवमेदं पइण्णाय संपहि तं चेव सण्णाभेदं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तं जहा। $३०. सुगमं। * एक्केक्किस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किट्टीओ। तासि अंतराणि वि अणंताणि । तेसिमंतराणं सण्णा किट्टी-अंतराइ णाम । संगहकिट्टीए च संगहकिट्टीए च अंतराणि एकारस । तेसि सण्णा संगहकिट्टीअंतराइ णाम । ६३१. एक्स्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-एक्केकस्स कसायस्स तिणि तिण्णि संगहकिट्टीओ होदूण बारस संगहकिट्टीओ भवंति । तासिमेक्केक्किस्से संगहकिट्टीए अवंतरकिट्टीओ अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणसिद्धाणंतभागमेतीओ भवंति । तासिमंतराणि वि अणंताणि चेव, किटीगणणाए चेव रूवणाए तासिमंतरभावेण समवलंभादो। तदंतरुप्पत्तिणिमित्तगुणगारा वि अंतराणि त्ति भण्णते, कारणे कज्जुवयारादो। तेसिमेत्थ गहणं कायव्वं । तदो तेसिमंतराणं गुणगारसरूवाणं किट्टोअंतराणि ति सणा। पुणो संगहकिट्टीए च संगहकिट्टीए च हेट्टिमोवरिमाए जाणि अंतराणि एक्कारससंखाविसेसिदाणि तेसिं सण्णा संगहकिट्टीअंतराणि ति । एत्थ वि पुव्वं व तप्पडिबद्धगुणगाराणं चेव संगहो कायव्यो। तदो * सर्वप्रथम अल्पबहुत्वके लघु आलापरूप संक्षेप पदोंके अर्थसम्बन्धी संज्ञाओंका निक्षेप करना चाहिए। ६२९. प्रकृत अल्पबहुत्व के बहु विस्तारके परिहार द्वारा लघु आलापका संक्षेपसे कथन करनेके लिए सर्वप्रथम प्रकृत अर्थसम्बन्धी संज्ञाओंमें जो भेद है उसका यह निक्षेप करना चाहिए, अन्यथा इस अल्पबहुत्वका संक्षेपसे कथन करनेका दूसरा कोई उपाय नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इसकी प्रतिज्ञा करके अब इसी संज्ञाभेदका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * वह जैसे। 5३०. यह सूत्र सुगम है। * एक-एक संग्रह कृष्टिको अनन्त कृष्टियाँ हैं तथा उनके अन्तर भी अनन्त हैं। उन अन्तरोंको कृष्टि अन्तर संज्ञा है और संग्रहकृष्टि संग्रहकृष्टिके अन्तर ग्यारह हैं। उनको संग्रहकृष्टि अन्तर संज्ञा है। ३१. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-एक-एक कषायकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियां होकर बारह संग्रह कृष्टियां होती हैं। उनमें से एक-एक संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियां अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होती हैं तथा उनके अन्तर भी अनन्त होते हैं, क्योंकि कृष्टियोंको गणनामें से एक कम करनेपर उनके अन्तर उपलब्ध हो जाते हैं। अतः उन कृष्टियोंके अन्तरोंकी उत्पत्तिके निमित्तभूत गुणकार भी अनन्त कहे जाते हैं, क्योंकि यहां कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। उनका यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अतः गुणकारस्वरूप उन अन्तरोंकी कृष्टि अन्तर यह संज्ञा है। पुनः संग्रहकृष्टि संग्रहकृष्टिके आगे-पीछे ग्यारह संख्यासे
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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