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________________ खवगसे ढोए किट्टोअप्पाबहुअपरूवणा १३ * विदियं किट्टीअंतरमणंतगुणं । $३५. एत्थ वि विदियकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा तदियकिट्टीपमाणं पावदि सो गुणगारो विदियकिट्टीअंतर मिदि भण्णदे । एसो पुविल्लादो अणंतगुणो, तप्पाओग्गाणंतरूवेहि तम्मि गुणिदे एदस्स समुप्पत्तीदो। * एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ३६. एवं तदियचउत्थाविकिट्टीअंतराणं पि लोभपढमसंगहकिट्टीपडिबद्धाणमणंतराणंतरावो अणंतगुणकमेण अप्पाबहुअमेवमणुगंतव्वं जाव चरिमकिट्टीअंतरं पत्तं ति । तत्थ चरिमकिट्टी. अंतरमिदि वुत्ते दुचरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा चरिमकिट्टीपमागं पावदि सो गुणगारो चरिमकिट्टीअंतरमिदि घेत्तव्वं । एत्थ सव्वत्थ गुणगारो तप्पाओग्गाणंतरूवमेत्तो। * लोभस्स चेव विदियाए संगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ३७. एत्थ पढमविदियसंगहकिट्टीणमंतरभूदो परत्थाणगुणगारो सर्वहितो सत्याणगुणगारेहितो अणंतगुणो ति तमुल्लंघियूण विदियसंगहकिट्टोए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणमिवि भणिदं । तदो विदियसंगहकिट्टीए पढमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिवा अप्पणो विदियकिट्टि पावदि सो गुणगारो अणंतरहेट्टिमपढमसंगहकिट्टीचरिमगुणगारादो अणंतगुणो ति सुत्तत्थो। * उससे दूसरी कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६३५. यहाँपर भी दूसरी कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर तीसरी कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त होती है उस गुणकारको द्वितीय कृष्टि अन्तर कहते हैं। यह गुणकार पूर्वके गुणकारसे अनन्तगुणा है, क्योंकि तत्प्रायोग्य अनन्त संख्यासे उसके गुणित करनेपर इसकी उत्पत्ति होती है। के इस प्रकार उत्तरोत्तर अनन्तर-अनन्तर क्रमसे जाकर जो अन्तमें अन्तिम कृष्टि प्राप्त होती है उसका अन्तर अपनी उपान्त्य कृष्टिके अन्तरसे अनन्तगुणा है। ३६. इस प्रकार लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिसे सम्बन्ध रखनेवाली तीसरी और चौथो आदि क्रष्टियोंका अन्तर भी उत्तरोत्तर तदनन्तर-तदनन्तर रूपसे अनन्तगणित क्रमसे प्राप्त करते हुए अन्तिम कृष्टिके अन्तरके प्राप्त होने तक यह अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए। वहां अन्तिम कृष्टि का अन्तर ऐसा कहनेपर द्विचरम कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणित करनेपर अन्तिम कृष्टिका प्रमाण प्राप्त होता है वह गुणकार अन्तिम कृष्टिका अन्तर है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहां सर्वत्र गुणकार तत्प्रायोग्य अनन्त संख्याप्रमाण है। * लोभकी ही द्वितीय संग्रह कृष्टिका प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। ३७. यहाँपर प्रथम और द्वितीय संग्रह कृष्टियोंका अन्तररूप परस्थान गुणकार सब अन्तर कृष्टियोंके स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा है, इसलिए उसे उल्लंघन करके 'दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है' यह कहा है, इसलिए दूसरो संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर अपनी दूसरी कृष्टि को प्राप्त होती है वह गुणकार अनन्तर अधस्तन प्रथम संग्रह कृष्टिक अन्तिम गणकारसे अनन्तगुणा है यह इस सूत्रका अर्थ है। विशेषार्थ-यहाँपर प्रथम संग्रह कृष्टि और द्वितीय संग्रह कृष्टिके मध्य जो अन्तर है उसको गोण कर प्रथम संग्रह कृष्टिको जो अन्तिम कृष्टि है उससे दूसरी संग्रह कृष्टिको दूसरो कृष्टिका गुणकार पूर्वके गुणकारसे भी अनन्तगुणा है यह स्पष्ट किया गया है। १. ता. प्रती पढमसंगहकिट्टीअंतरमणं तगुणं इति पाठः। २. ता. प्रतो पढमसंगहकिट्टी इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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