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________________ ( ८ ) ३ कृष्टि अन्तर यहाँ कृष्टि अन्तर कहने से उसका अर्थ इस्टिगुण,वार लेना चाहिये । इन कृष्टि अन्तरोंके दो भेद है-- स्वस्थान गुणकार और परस्थान गुणकार । यहाँ स्वस्थान गुणवारकी कुष्टि अन्तर संज्ञा है तथा परस्थान गुणकारकी संग्रह कृष्टि अन्तर संज्ञा है । प्रकृत में ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि एक-एक संग्रह कष्टिकी अनम्त अनन्त अवान्तर कृष्टियाँ होती है, इसलिए कृष्टि प्रकार भी अनन्त होते हैं, जो अवान्तर कष्टियोंसे एक कम होते हैं । तथा संग्रह कृष्टियाँ बारह हैं, इसलिए उनके अन्तर (गुणकार) कुल ग्यारह होते हैं । ४ अल्पबहुत्व ___ लोभकी प्रथम संग्रह कष्टिकी जघन्य कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणा करनेपर अपनी दूसरी कृष्टि उत्पन्न होती है वह गुणकार जघन्य कृष्टि अन्तर कहलाता है । उसका प्रमाण सबसे अल्प होता है । उससे दूसरी कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा होता है । यहाँ दूसरी कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणा करनेपर तीसरी. कुष्टि उत्पन्न होती है, यह दूसरी कृष्टि अन्तर कहा जाता है। आगे भो अन्तिम कृष्ट अन्तरके प्राप्त होने तक अनन्तके गणित क्रमसे अल्पबहुत्व प्राप्त कर लेना चाहिये। उसमें भी द्विचरम कडि-को जिस गुणकारसे गुणित करनेपर अन्तिम कृष्टिका प्रमाण प्राप्त होता है वह अन्तिम कृष्टि अन्तर है ऐसा समझना चाहिए । __जो दूसरी संग्रह कृष्टि है उसमें और प्रथम संग्रह कृष्टिमें परस्थान गुणकार होता है जो समस्त स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा होता है । अतः उसे उल्लंघनकर दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । अतः उसे जिस गुणकारसे गुणा करनेपर दूसरी कृष्टि प्राप्त होती है वह गुणकार अनन्तर अधस्तन प्रथम संग्रह कृष्टिके अन्तिम गुणकारसे अनन्तगुणा होता है । यह एक क्रम है । इसे ध्यान में रखकर आगे सभी संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी अवान्तर कृष्टियों के स्वस्थान गुणकारोंको ले आना चाहिये।। इस प्रकार आगे चल कर क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी द्विचरम कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणित करनेपर वहींको अन्तिम कृष्टिको प्राप्त होता है वह अन्तिम कृष्टिका अन्तर होता है। उसे मर्यादा करके यहाँ तक सब अन्तर कृष्टियोंका गुणकार जानना चाहिए। ५ परस्थान गुणकार अल्पबहुत्व एक संग्रह कृष्टिसे दूसरी संग्रह कृष्टिके मध्य जो अन्तर होता है उसकी संग्रह कृष्टि अन्तर संज्ञा है । आगे इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिको जिस गुणकारसे गणित करने. पर दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टि प्राप्त होती है वह लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तर है। यह गणकार स्वस्थान गुणकागेंके अन्तिम गुणकारसे अनन्तगुणा होता है। कारण कि यह परस्थान गणकार है। एक-एक कपायकी जो तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ कही गई हैं उसका कारण यह स्वस्थान गणकारसे भिन्न परस्थान गुणकार ही है। यहाँपर अधस्तन कृष्टिको उपरिम कृष्टिमेंसे घटाकर जो शेष रहे एक कम वह अविभागप्रतिच्छेदके क्रमसे न बढ़ कर युगपत् बढ़ा है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि यहाँ परस्थान गुणकारमें कृष्टि अन्तर नहीं लिया गया है । अन्यथा इसे पूर्व के अन्तिम स्वस्थान कृष्टि अन्तरसे अनन्तगुणा हीन मानना पडेगा । यहाँ प्रथम संग्रह कृष्टि अन्तरको जिस विधिसे स्पष्ट किया है। आगे भी शेष संग्रह कष्ट अन्तगेको उक्त विधिको ध्यानमें रख कर घटित कर लेना चाहिए। आगे अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वीणा कितना प्रमाण है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि क्रोधको अन्तिम कृष्टिसे लोभके अपर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाका अन्तर अनन्तगुणा है। ६. दीयमान प्रदेश श्रेणिप्ररूपणा : ___ जो कृष्टिकारक जीव है वह प्रथम समयमें पूर्व और अपूर्व स्पर्धको सम्बन्धी प्रदेश पुंज के असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके जो अपकर्षण करनेसे द्रव्य प्राप्त होता है उसके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको सब
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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