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________________ कृष्टियोंमें देता है और इस प्रकार देता हआ जो लोभसंज्वलनकी जघन्य कृष्टि है उस रूपसे बहुत बहुत पुंजका निक्षेप करता है। आगे क्रोध संज्वलनकी अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक अनन्तवें भागप्रमाण विशेषहीन विशेषहीन द्रव्य होता है । यह अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा कथन है । परम्परोपनिषाकी अपेक्षा विचार करनेपर लोभकी जघन्य कृष्टिको जितना द्रव्य प्राप्त होता है उससे क्रोधवी उत्कृष्टिकृष्टि में अनन्तवें भागप्रमाण विशेषहीन. ही द्रव्य प्राप्त होता है । ऐसा क्यों है इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि १२ संग्रह कृष्टि योकी जितनी भी अवान्तर कृष्टियाँ रची है वे सब मिलाकर एक गुणहानि स्थानान्तर के अनन्त भागप्रमाण होती हैं । आये प्रथम समय में जिस द्रव्यका अपकर्षण करके अवान्तर कृष्टियोंकी रचना की गई है उस अपकर्षित द्रव्य से अपूर्व स्पर्धकको आदि वर्गणाको कितना द्रव्य प्राप्त होता है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि क्रोधकी अन्तिम कृषिको जितना द्रव्य प्राप्त होता है उसके अनन्तवें भागप्रमाण द्रव्य ही अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाको प्राप्त होता है। कारणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि क्रोधकी अन्तिम कृष्टि में अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी अनन्त आदि वर्गणाप्रमाण द्रव्यको निक्षिप्त करके पुनः अपूर्व स्पर्धकको आदि वर्गणामें वहाँ पहलेसे अवस्थित द्रव्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण ही द्रव्य निक्षिप्त होता है। इसलिये उक्त अर्थकी उपलब्धि बिना बाधाके बन जाती है।। किन्तु दृश्यमान द्रव्य क्रोधको अन्तिम कृष्टिमें बहुत है तथा उससे अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा में अनन्तगुणाहीन है। इसलिए कितने आचार्य यहाँ दोनों पुच्छाओंका निर्देश करते हैं। किन्तु टीकामें उसका निषेध करके पूर्वोक्त अर्थको ही ग्रहण करने का विधान किया गया है । इसप्रकार कृष्टिकरण कालके प्रथम समयमें कृष्टियों में दीयमान प्रदेश पुंजकी श्रेणिप्ररूपणा की। ६. दूसरे समयमें कार्यभेद : . ___अब दूसरे समय में किये जानेवाले कार्य भेदका कथन करते हुए बतलाया है कि प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये द्रव्यसे दूसरे समयमें असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके उससमय कृष्टियोंको करता हुआ प्रथम समय में की गई कुप्टियों के नीचे अन्य अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है। तथा पूर्वमें रची गई कृष्टियोंके सदृश घनरूपसे भी कृष्टियोंकी रचना करता है। किन्तु यहाँ उन अपूर्व कृष्टियोंका प्रमाण प्रथम समयमें रची गई कृष्टियों के असंख्यातवें भागप्रमाण है। यहाँ दूसरे समयमें कृष्टियोंकी रचना करनेवाला उस समय अपकर्षित किये गये सकल द्रव्य के असंख्यातवें भागको अपूर्व कृष्टियोंमें निक्षिप्त करके शेष बहुभाग द्रव्यको पूर्व कृष्टियों में तथा स्पर्धक में यथाविधि निक्षिप्त करता है। किन्तु ये सब अपूर्व कृष्टियों किस स्थानमें रची जाती हैं इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि क्रोधसंज्वलन के पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमेंसे प्रदेश पुंजका आकर्षण करके अपनी-अपनी तीनों संग्रह कृष्टियों के नीचे प्रत्येककी अपेक्षा पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभको अपेक्षा भी जान लेना चाहिये । तात्पर्य यह है कि १२ संग्रह कृष्टियोंकों जघन्य कृष्टियों में नीचे अलग-अलग पूर्व कृष्टियों के असंख्यातवें भाग प्रमाण अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करनेवाले जीवके दूसरे समय में बारह संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी अपूर्व कृष्टियोंकी रचना हो जाती है । ७. दूसरे समयये दोयमान प्रदेशपुंज श्रेणीप्ररूपणा : लोभकी जघन्य कृष्टिमें बहुत प्रदेशपुंज दिया जाता है। दूसरी कृष्टि में अनन्तवाँ भाग कम दिया जाता है । इसप्रकार लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंमें अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक अनन्तवें भागहीन द्रव्य दिया जाता है। उसके बाद प्रथम समय में रची गई जघन्य अपूर्व कृष्टिमें असंख्यातवाँ भागहीन द्रव्य दिया जाता है । उसके बाद प्रथम समयमें निष्पन्न हुई प्रथम संग्रह कृष्टिी अपूर्व कृष्टियों में अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर अनन्तवा भामहीन द्रव्य दिया जाता है। पुनः सन्धिमैं स्थित कृष्टियों में उत्तरोत्तर असंख्यातवा भागहीन द्रव्य दिया जाता है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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