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________________ ४६ जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे * उवरि जाओ वेदिज्जंति ण बज्झति ताओ विसेसाहियाओ । ६ १२२. सुगमं । * मझे जाओ किट्टीओ बज्झंति च वेदिज्जंति च ताओ असंखेज्जगुणाओ । $ १२३. पुत्तद्विमोवरिमासंखेज्जभागविसयाओ किट्टीओ मोत्तूण सेसाले समज्झिमकिट्टीओ वज्झमाणवेदिज्जमाणाओ णाम, तदायारेण बंघोदयाणं पवृत्तीए पडिसेहाभावादो । तदो ताओ असंखेज्जगुणाओ जादाओ । एत्थ गुणगारो तप्पा ओग्गपलिदोवमासंखेज्जदिभागमेत्तो । एवं किट्टी वेदाए पढमसमए इमं परूवणं काढूण संपहि किट्टीवेदगद्धं तत्थ ताव थप काढूण किट्टीकरणद्धाए पडिबद्धगाहासुत्ताणमत्यविहासणं कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * किट्टीवेदगद्धा ताव थवणिज्जा । $ १२४. कुदो ? किट्टीकरणद्धापडिबद्धसुत्तफासे अकबे तिस्से परूवणावसराभावादी । तदो तमेव ताव सुत्तफासं जहावसरपत्तं कुणमाणो इदमाह * किट्टीकरणद्धाए ताव सुत्तफासो । १२५. पुव्वं गाहासुत्ताणि हियए काढूण तदुच्चारणाए विणा किट्टीकरणद्धा विसेसिदा । इणि पुणतविसयो सुत्तफासो कायव्वो, तेण विणा पुण्वपरूवणाविसये णिण्णयाणुत्पत्ती दो ति वृत्तं होइ । * ( पूर्व में कही गयी कृष्टियोंसे ) ऊपर स्थित जो कृष्टियाँ उदयको प्राप्त होती हैं किन्तु बँधती नहीं हैं वे विशेष अधिक हैं । $ १२२. यह सूत्र सुगम है । * बीच में जो कृष्टियाँ बंधती हैं और उदयको प्राप्त होती हैं वें असंख्यातगुणी हैं । $ १२३. पूर्वोक्त अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको छोड़कर मध्यकी शेष समस्त कृष्टियाँ बन्धरूप और उदयरूप हैं, क्योंकि उसरूपसे अर्थात् वे कृष्टियाँ जिस अनुभागस्वरूप हैं उसरूपसे उनके बन्ध और उदयकी प्रवृत्ति होनेका निषेध नहीं है, इसलिए वे असंख्यातगुणी हो गयी हैं । यहाँपर गुणकार तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार कृष्टि वेदक कालके प्रथम समय में इस प्ररूपणाको करके अब कृष्टि वेदक कालको सर्वप्रथम स्थगित करके कृष्टिकरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाले गाथासूत्रों के अर्थ की विभाषा करते हुए आगे के सूत्र प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * अब कृष्टिवेदक कालको स्थगित रखना चाहिए । . १२४. क्योंकि कृष्टिकरण कालसम्बन्धी सूत्रोंका स्पर्शं ( व्याख्यान ) नहीं किये जानेपर आगे उनके कथन के अवसरका अभाव है, इसलिए यहाँपर सर्वप्रथम उसी अवसर प्राप्त सूत्रों का स्पर्श ( व्याख्यान ) करते हुए इस सूत्र को कहते हैं * सर्वप्रथम कृष्टिकरण कालके सूत्रोंका स्पर्श करते हैं । $ १२५. पहले गाथासूत्रों को हृदयमें करके उनका उच्चारण किये बिना कृष्टिकरण कालका व्याख्यान किया है । परन्तु इस समय तद्विषयक सूत्रोंका स्पर्श करना चाहिए, क्योंकि उसके बिना पूर्व में की गयी प्ररूपणाविषयक निर्णय नहीं हो सकता यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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