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________________ खवगसेढोए किट्टोणं अप्पाबहुअपरूवणा २९७ ६७४२. एवं भणंतस्साहिप्पाओ-जहाकोहस्स पढमसंगहकिट्टी सगायामेण सेंससंगहकिट्टीणमायाम पेक्खियूण दव्वमाहप्पेण संखेज्जगुणा जावा एवमेसा वि सुहमसांपराइयकिट्टो कोहपढमसंगहकिट्टि मोत्तूण संसासेससंगहकिट्टोणं किट्टीकरणखाए समुवलखायामावो संखेज्जगुणायामा बटुव्वा, सयलस्सेव मोहणीयदव्वस्साहारभावेणेविस्से परिणमिस्समाणत्तावों त्ति। ६७४३ अघवा, 'जारिसी कोहस्स पढमसंगहकिट्टी' एवं भणिजे जारिसलक्खणा कोहपढमसंगहकिट्टी अपुव्वफद्दयाणं हेहा अणंतगुणहीणा होदूण कदा, तारिसलक्खणा चेव एसा सहमसांपराइयकिट्टी लोभस्स तवियबादरसांपराइयकिट्टीदो हेट्ठा अणंतगुणहीणा होदूण कीरवि ति भणिवं होदि। ___ अहवा जहा कोहपढमसंगहकिट्टो जहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव उक्कस्सकिट्टि त्ति ताव अणंतगुणा होदूण गदा तहा चेव एसा सुहुमसांपराइयकिट्टो वि अप्पणो जहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव सगुक्कस्सकिट्टी त्ति ताव अणंतगुणा होदूण गच्छवि त्ति भणिदं होदि। जइ एवं किट्टीलक्खणेण बारसण्हं संगहकिट्टीणमण्णदरकिट्टीए एसा सुहुमसांपराइयकिट्टी सरिसा ति अभणिदूण जारिसी कोहस्स पढमसंगहकिट्टी तारिसी एसा सुहमसांपराइयकिट्टी त्ति विसेसियूण भणंतस्स को अभिप्पाओ ति णासंकणिज्जं, जस्स वा तस्स वा कसायस्स जाए वा ताए वा किट्टीए एसा सुहुमसांपराइयकिट्टी सरिसा ति भण्णमाणे सम्ममत्थपडिबोहो आयामविसेसणिच्छओ च ण होवि त्ति कादूण तत्य सुहप्पबोहजणणटुं पढमकसायस्स पढमसंगहकिट्टि चेव घेतण सुत्ते तहा णिहिट्ठत्तादो। संपहि ६७४२. इस प्रकार कहनेवालेका अभिप्राय है कि जिस प्रकारको अपने आयामसे क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टि शेष संग्रह कृष्टियोंके आयामको देखते हुए द्रव्यके माहात्म्यवश संख्यातगुणो हो जाती है उसी प्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी कोषको प्रथम संग्रहकृष्टिको छोड़कर शेष समस्त संग्रहकृष्टियोंके कृष्टिकरण कालके प्राप्त होनेवाले आयामसे संख्यातगुणे आयामवाणे जाननी चाहिए, क्योंकि पूरे ही मोहनीयके द्रव्यके आधाररूपसे इसका परिणमन होता है। ६७४३. अथवा 'क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि जिस प्रकारकी होती है। ऐसा कहनेपर क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टि जिस लक्षणवाली होकर अपूर्व स्पर्धकोंके नीचे अनन्तगुणो हीन होकर की गयी है, उसी प्रकारके लक्षणवाली यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि लोभको तीसरी बादर साम्परायिक कृष्टिसे नीचे अनन्तगुणो हीन होकर की गयी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-अथवा जिस प्रकार क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टि जघन्य कृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टि तक अनन्तगुणो हीन होकर गयो है उसो प्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी अपनो बघन्य कृष्टिसे लेकर अपनी उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक अनन्तगुणी होन होकर गयी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यद्यपि ऐसा है तो भी यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिके लक्षणकी अपेक्षा बारह संग्रह कृष्टियोंमें-से अन्यतर कृष्टिके सदृश होती है ऐसा न कहकर जैसी क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि होती है वैसी यह सूक्ष्यसाम्परायिक कृष्टि है ऐसा विशेषरूपसे कहनेवाले आचार्यका क्या अभिप्राय है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिस किसी कषायको जिस किसो कृष्टिके साथ यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि सदृश होती है ऐसा कथन करनेपर सम्यक् प्रकारसे अर्थका ज्ञान और आयामविशेषका निश्चय नहीं होता है ऐसा समझकर सुखपूर्वक ज्ञान करनेके लिए प्रथम कषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिको ही ग्रहण करके सूत्र में उस प्रकारसे निर्देश किया है। ३८
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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