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________________ खवगसेढोए अट्टममूलगाहाए पढमभासगाहा १९३ ६५०३. जो पवाइज्जह उवएसो सव्वाइरिएहिं अविसंवादसहवेण वक्खाणिज्जदि तेण उवएसेण णिल्लेवणढाणाणि पलिदोवमस्त असंखेज्जभागमेत्ताणि होति । होताणि वि ताणि असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलमसंखेज्जस्वेहि पलिदोवमद्धच्छेदणएहितो असंखेज्जगुणहोणेहि पलिदोवमे ओवट्टिदे भागलद्धम्मि तप्पमाणागमणदसणादो। एवमेत्तिएण पबंधेण पिल्लेवणटाणाणमवएसभेदावलंबणेण पमाणविणिणयं कादण तत्थ जो पवाइज्जमाणो उवएसो तं चेव घेत्तूण उवरिमं परूवणमाढवेमाणो पुव्वमेव ताव जहण्णपिल्लेवणट्टाणप्पहुडि जावुक्कस्सजिल्लेवणटाणाणि त्ति एदेसु पिल्लेवणटाणेसु पिल्लेविदपुव्वाणं समयपबद्धाणमेगजीवसंबंधेण अदीदकालविसये पिल्लेवणकालप्पाबहुअपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तपबंधमाह * अदीदे काले एगजीवस्स जहण्णए पिल्लेवणट्ठाणे जिल्लेविदपुव्वाणं समयपबद्धाणमेसो कालो थोवो। ६५०४. एवस्स सुत्तस्सत्यो वुच्चदे-अदीदकाले एगजीवस्स जहण्णणिल्लेवणट्टाणप्पहुडि जाव उक्कस्सपिल्लेवणटाणे ति ताव एवेसु पिल्लेवणहाणेसु पादेक्कमणंताणता णिल्लिवणवारा गदा। तत्थ जहण्णए पिल्लेवणट्ठाणे पुणो पुणो ठाइदूण समयपबद्ध जिल्लेवेमाणस्स तस्स नो कालो अणंतसमयावच्छिण्णपमाणो अदीवकालभंतरे सम्वत्थ जहासंमवमुच्चिणिदूण गहिवसरूवो सो सव्वत्थोवो त्ति वुत्तं होदि। . ६५०३. जो उपदेश प्रवाहित हो रहा है अर्थात् सब आचार्योंके द्वारा अविसंवादीरूपसे व्याख्यान हो रहा है उस उपदेशके अनुसार निर्लेपनस्थान पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। ऐसा होते हुए भी वे असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण हैं। अर्थात् पल्योपमके अर्धच्छेदोंसे असंख्यातगुणे होन असंख्यातसे पल्योपमके भाजित करनेपर जो भाग लब्ध आवे वे तत्प्रमाण हैं। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा उपदेशभेदका अवलम्बन लेकर निर्लेपनस्थानोंके प्रमाणका निर्णय करके उनमें जो प्रवाह्यमान उपदेश है उसे ग्रहण कर आगेके प्रबन्धका आरम्भ करते हए सर्वप्रथम जघन्य निर्लेपनस्थानसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपनस्थानोंके प्राप्त होने तक. इन निर्लेपनस्थानोंमें जिनका पहले निर्लेपन किया गया है ऐसे निर्लेपनस्थानोंके एक जीवके सम्बन्धसे अतीत कालविषयक निर्लेपनकालसम्बन्धी अल्पबहुत्वका प्ररूपण करने के लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अतीत कालमें जघन्य निर्लेपनस्थानमें स्थित एक जीवका निर्लेपितपूर्व समयप्रबद्धों सम्बन्धी यह काल सबसे थोड़ा है। ६५०४. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-अतीत काल में एक जीवके जघन्य निर्लेपनस्थानसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपनस्थान तकके पिनस्थानोंमें प्रत्येकके अनन्तानन्त निर्लेपनवार व्यतीत हए हैं। उनमें जघन्य निर्लेपनस्थानमें पुनः पुनः स्थापित करके समयप्रबद्धोंका निर्लेपन करनेवाले. का जो अनन्त समयप्रमाण काल अतीत कालके भीतर व्यतीत हुआ है, यथासम्भव एकत्रित करके ग्रहण किया गया वह काल सबसे थोड़ा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तक जितने भी निर्लेपनस्थान हैं उनमेंसे जघन्य निर्लेपनस्थानको अतीत कालमें एक जीवने जितनी बार किया है तत्सम्बन्धी समयप्रबद्रोंका जो समुदित काल है वह सबसे थोड़ा है यह इस सूत्रका भाव है। २५
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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