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________________ खवगसेढीए संजलणसंतकम्मस्स अणुसमयोवट्टणा २६७ ६६६५. से कालप्पहुडि कोहविदियसंगहकिट्टीवेदगभावेण परिणमणसणादो त्ति वुत्तं होइ [२] * जा पुवपवत्ता संजलणाणुभागसंतकम्मस्स अणुसमयमोवट्टणा सा तहा चेव[३] ६६६६. किट्टीवेदगपढमसमयप्पहुडि जा पुवपवत्ता चदुसंजलणाणुभागस्स अणुसमयोवट्टणा सा तहा चेव एण्हि पि पयट्टदे, ण तत्थ किंचि जाणत्तथि त्ति भणिदं होदि। एत्थ सुत्तसमत्तीए तिहमंकविण्णासो कदो, तदिओ एसो परूवणाभेदो एत्थ जाणेयव्वो त्ति पदुप्पायणटुं। * चदुसंजलणाणं हिदिबंधो बे मासा, चत्तालीसं च दिवसा अंतोमुहुत्तणा [४] ६६६७. पुढवं किट्टीवेदगपढमसमये संपुण्णचत्तारिमासमेतो एदेसि टिदिबंधो, तत्तो जहाकम संखेज्जसहस्समेत्तेहि ठिदिबंधोसरणेहि ओहट्टियूण एण्हिमंतोमुहुत्तूणचत्तालीसदिवसाहियबे-मासमेत्तो संवुत्तो त्ति वुत्तं होइ। एत्थ चत्तारिमासमेत्तपुश्वुत्तसंधिविसटिदिबंधादो परिहोणासेदिदिपमाणं वीसदिवसा अंतोमुत्त भहिया ति दट्टव्वं; तिण्हं कोहसंगहकिट्टीणं वेदगकालेण जदि दोण्हं मासाणं परिहाणी लादि, तो एक्किस्से पढमसंगहकिट्टोए वेदगकालम्मि केत्तियं ठिदिबंधपरिहाणि पेच्छामो ति तेरासियकमेण पयटिदिबंधपरिहाणी साहेयव्वा । तदो चउत्थमेदमावासयमिहावगंतव्वमिदि सिद्धं । * संजलणाणं द्विदिसंतकम्म छ वस्साणि अट्ठ च मासा अंतोमुहुत्तणा [५] ६६६५. तथा तदनन्तर समयसे लेकर क्रोधको द्वितीय संग्रह कृष्टिके वेदकरूपसे परिणमन देखा जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। २। * संज्वलनचतुष्कके अनुभागसत्कर्मको जो अनुसमय अपवर्तना पहले प्रवृत्त हुई थी वह उसी प्रकारसे प्रवृत्त रहती है । ३।। ६६६६. कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर चारों संज्वलनोंके अनुभागकी जो अनुसमय अपवर्तना पहले प्रवृत्त हुई थी वह इस समय भी उसी प्रकार प्रवृत्त रहती है। उसमें कुछ भी नानापना ( भेद ) नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहांपर सूत्र की समाप्तिमें तीन अंकका विन्यास किया है, उससे यह तीसरा प्ररूपणाभेद है ऐसा जानना चाहिए इस प्रकार * चारों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध दो महीना और अन्तर्मुहूर्त कम चालीस दिनप्रमाण होता है। ४। ६६६७. पहले कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें इन कर्मोंका सम्पूर्ण चार माहप्रमाण जो स्थितिबन्ध होता था, उससे संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरणोंके द्वारा घटकर इस समय वह अन्तर्मुहूर्त कम चालीस दिन अधिक दो माहप्रमाण हो गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहांपर चार माहप्रमाण पूर्वोक्त सन्धिविषयक स्थितिबन्धसे घटी हुई सम्पूर्ण स्थितिका प्रमाण अन्तर्मुहुर्त अधिक बोस दिन होता है ऐसा जानना चाहिए । तीन क्रोधसम्बन्धी संग्रह कृष्टियोंकी स्थिति यदि वेदककालके द्वारा दो महीना कम होती है तो एक प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदककालमें स्थितिबन्धको कितनी हानि देखेंगे इस प्रकार त्रैराशिक क्रमसे प्रकृत स्थितिबन्धकी हानि साध लेना चाहिए। इसलिए यह चौथा आवश्यक यहां जानना चाहिए यह सिद्ध हुआ। * चारों संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म छह वर्ष और अन्तर्महूर्त कम आठ महीना होता है। ५।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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