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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे * कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमट्ठिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए एदम्हि समये जो विही तं विहिं वत्तइस्सामो | २६६ ६६६२. पढमसमय किट्टीवेदगो कोहसंजलणपढमसंगह किट्टीए अवयव किट्टीओ ओकड्डियूण पढमट्ठिदि कुणमाणो तत्तोप्पहूडि जो कोहवेदगद्धा तिस्से सादिरेयतिभागमेत्तमावलियम्भहियं पढमट्ठिदि करेदि । एवं निविखत्ता जा कोहपढमट्ठिदी कोहपढमकिट्टि वेदेमाणस्स पढपट्टिदी सा कमेण वेदिज्जमाणा जाधे समयाहियावलियमेत्ता परिसेसा ताधे कोहपढमसंगह किट्टीए चरिमसमयवेदगो जायदे | एदम्मि अवत्थंतरे वट्टमाणस्सेदस्स जो परूवणाभेदो तमिदाणि वत्तइस्सामो त्ति भणिदं होइ । * तं जहा । ६६६३. सुगमं । * ताधे चेव कोहस्स जहण्णगो द्विदिउदीरगो । ६६४. समयाहियावलियमेत्तणिरुद्ध पढमद्विदीए चरिमट्ठिदिमोकड्डियूण उदये संछुहमा - णस्स तस्स तम्मि समये कोहसंजलणस्स जहणिया ट्ठिदिउदीरणा जादा त्ति एसो एदस्स भावत्यो । ण च एत्थ विदियट्ठिदीए उदीरणासंभवो हेट्ठा चेव आवलिय-पडिआवलिय से सपढमद्विदीए माण आगाल पडिआगालवोच्छेदवसेण तहा विहसं भवाणु वलं भादो । * कोहपढमकिट्टीए चरिमसमयवेदगो जादो | $ ६६२. प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदक जीव क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टियों का अपवर्तन करके प्रथम स्थितिको करता हुआ वहाँसे लेकर जो क्रोध-वेदककाल है उसकी एक आवल अधिक कालको साधिक त्रिभागमात्र करके प्रथम स्थिति करता है । इस प्रकार निक्षिप्त हुई जो क्रोध की प्रथम स्थिति है अर्थात् क्रोधको प्रथम कृष्टिका वेदन करनेवाले की प्रथम स्थिति है। वह क्रमसे वेदन में आती हुई जिस समय एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण शेष रहती है उस समय क्रोध की प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तिम समयवर्ती वेदक होता है । और इस अवस्थाके मध्य विद्यमान इसकी प्ररूपणा में जो भेद होता है उसे इस समय बतलावेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * वह जैसे । ६ ६६३. यह सूत्र सुगम * उसी समय यह क्षपक क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थिति उदीरक होता है । ६ ६६४. एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण वित्रक्षित प्रथम स्थितिकी अन्तिम स्थितिका अपकर्षण करके उदय में निक्षिप्त करनेवाले उस क्षपत्रके उस समय क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थिति - उदीरणा होती है यह इस सूत्र का भावार्थ है । किन्तु यहाँपर द्वितीय स्थितिको उदीरणा सम्भव नहीं है, क्योंकि इसके पहले ही आवलि और प्रत्यावलिप्रमाण प्रथम स्थितिमें विद्यमान इस क्षपकके आगाल और प्रत्यगालकी व्युच्छित्ति हो जानेके कारण उस प्रकारका होना सम्भव नहीं है। * तथा उस समय क्रोधको प्रथम कृष्टिका अन्तिम समयवर्ती वेवक होता है। 1
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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