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________________ जयघवलास हिदे कसाय पाहुडे विसेसाहियकमेण पदेसग्गावद्वाणस्स किट्टोवेदगपढमसमए परिप्फुडमुवलंभादो । एदेण चेव परत्थाप्याबहुअं पि सूचिदं दटुव्वं । संपहि एवंविहमेदिस्से पढमभासगाहाए अत्थविसेसं विहासिदुकामो चुण्णित्तारो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ * विहासा । ७४ ६ १९३. सुगमं । * तं जहा । १९४. सुगमं । * कोहस्स विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं थोवं । $ १९५० किं कारणं ? मोहणीयसयलदव्यस्स किचूणच उवीसभागपमाणत्तादो ! * पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेजगुणं तेरसगुणमेत्तं । १९६. एत्थ ' पढमसंगह किट्टि' त्ति वृत्ते वेदगपढमसंगह किट्टीए गहणं कायध्वं । तेण gogत्त कोह विदियसंगह किट्टीए पवेसग्गादो कोहस्स चेव पढमसंगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेज्जगुण मिदि सुत्तत्य संबंधो। तत्थ 'संखेज्जगणं' इदि सामण्णणिद्देसेण गुणगारविसए विसेसनिण्णओ ण जादो तितव्विसयणिण्ण यजणणटुं 'तेरसगुणमेतं' इदि विसेसियूण भणिदं । एवमेदेण मुत्तकंठमुट्ठस तेरसरूवमेत्तगुणगारस्स साहणट्टमिमा परूवणा कीरदे । तं जहा - मोहणीयसम्वद अवस्थान कृष्टियों का वेदन करनेवालेके प्रथम समय में स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है । तथा इससे परस्थान अल्पबहुत्वका भी सूचन कर दिया है ऐसा जानना चाहिए । अब इस प्रथम भाष्यगाथा के अर्थविशेषकी विभाषा करने की इच्छासे चूर्णिसूत्रकार आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । ६ १९३. यह सूत्र सुगम है । वह जैसे । $ १९४. यह सूत्र सुगम है । * क्रोधकी दूसरी संग्रहकृष्टिका प्रदेशपुंज सबसे स्तोक है । १९५. क्योंकि वह मोहनीय कर्मसम्बन्धी समस्त द्रव्य कुछ कम चौबीसवें भाग प्रमाण है । * उससे प्रथम संग्रहकृष्टिका प्रदेशपुंज संख्यातगुणा अर्थात् तेरहगुणा है । $ १९६. इस सूत्र में 'प्रथम संग्रह कृष्टि' ऐसा कहनेपर उसका वेदन करनेवाले जीवके प्रथम संग्रह कृष्टिका ग्रहण करना चाहिए। इस कारण पूर्वोक्त क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिके प्रदेश पुंज से क्रोध की ही प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज संख्यातगुणा है यह इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है । उसमें 'संख्यातगुणा' ऐसा सामान्य निर्देश करनेसे गुणकारके विषय में विशेष निर्णय नहीं हो पाता, इसलिए तद्विषयक निर्णयको उत्पन्न करने के लिए 'तेरहगुणा है' ऐसा विशेषरूपसे कहा है । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा मुक्तकण्ठ कहे गये तेरहगुणे प्रमाणरूप गुणकारका साधन करनेके लिए
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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