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खवगसे ढोए तदियमूलगा हाए पढमभासगाहा
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६ १९१. पढमे अत्थे पबिद्राणं भासगाहाणं पंचसंग्खा विसेसियाणं पुत्रमेव ताव समुक्कि - तणा कायवा तिवृत्तं होदि, यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायात् ।
(११७) विदियादो पुण पढमा संखेज्जगुणा भवे पदेसग्गे ।
विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया ॥ १७० ॥
६ १९२. एसा पढमभासगाहा संगह किट्टीसु बारसधापविभत्तासु सत्याणपरत्थाणेहि विसेसियूण पदेसग्गस थोवबहुत्तपरूवणटुमोइण्णा । तं जहा - 'विदियादो पुण पढमा०' एवं भणिदे कोस विदियो संग किट्टीदो तस्सेव पढमसंगह किट्टोपदेसग्गेण संखेज्जगुणा होदि त्ति भणिदं होइ । एत्थ कारणं गुणगारपमाणं च पुरदो चण्णिसुत्तसंबंधेण वत्तइस्लामो । 'विदियाडो पुण 'दिया' एवं भणिदे विदियसंगहकिट्टीए सयलपवेसपिंडादो तदियसंगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं होदि ति सुत्तत्संबंधो। उवरिमविसे साहियग्गहणस्सेत्याहिसंबंधादो तदो कोहस्त तिहं संगह किट्टीणं सत्याणप्पा बहुअमेदेण सुत्तावयवकलावेण णिद्दिट्ठ होदि । कोहग्गहण मेत्याणिद्दिमणहिकथं च कथमवलम्भदि त्ति णासंका कायठवा, अत्यवसेण तदहिसंबंधोववत्तीवो । 'कमेण सेसा विसेस हिया' एवं भणिदे जहाकमेण वृत्तसेसाणं माण- माया लोभाणं तिष्णि तिष्णि संगह किट्टीओ सत्याणे विसेसाहियाओ होंति त्ति वृत्तं होदि । अष्पष्पणो वेदगपढपसंगह किट्टिमादि काढूण तत्थ
१९१. अब प्रथम अर्थ में प्रतिबद्ध पांच संख्याक भाष्यगाथाओंकी सर्वप्रथम पहले ही समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि उद्देश्यके अनुसार निर्देश किया जाता है ऐसा न्याय है ।
(११७) क्रोध संज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रथम संग्रह कृष्टि प्रदेश पुंजको अपेक्षा संख्यातगुणी है । परन्तु दूसरीसे तोसरी व क्रमसे शेष सभी संग्रह कृष्टियाँ आगे-आगे विशेष अधिक हैं ॥१७०॥
$ १९२. यह प्रथम भाष्यगाथा बारह प्रकारसे विभक्त संग्रह कृष्टियों में अवस्थित प्रदेशपुंजके स्वस्थान और परस्थान दोनों प्रकारसे अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । वह जैसे - "विदिया दो पुण पढमा' ऐसा कहनेपर क्रोधसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिसे उसीकी प्रथम संग्रह कृष्टि प्रदेश पुंजकी अपेक्षा संख्यातगुणो होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँवर कारण और गुणकारका प्रमाण आगे चूर्णिसूत्र के सम्बन्धसे बतलावेंगे । 'विदियादो पुण तदिया' ऐसा कहने पर दूसरी संग्रह कृष्टि के समस्त प्रदेशपिंडसे तीसरी संग्रह कृष्टिका समस्त प्रदेशपुंज विशेष अधिक होता है यह उक्त सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । आगे विशेष अधिक पदका ग्रहण किया है उसका यहाँ सम्बन्ध हो जाता है। इस कारण कोध संज्वलनकी तोनों संग्रह कृष्टियों का स्वस्थान अल्पबहुत्व इस समुदायरूप सूत्रवचन द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।
शंका - इस गाथासूत्र में एक तो क्रोधपदका ग्रहण नहीं किया गया है और उसका अधिकार भी नहीं है, अतः उसका ग्रहण कैसे प्राप्त होता है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अर्थवश प्रकृत में उसका सम्बन्ध बन जाता है ।
'कमेण सेसा विसेसाहिया' ऐसा कहनेपर यथाक्रम कहो गयो शेष मान, माया और लोभकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ स्वस्थानमें विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि वेदक के अपनी-अपनी प्रथम संग्रह कृष्टिसे लेकर उनमें विशेष अधिकके क्रमसे प्रदेशपुंजका
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