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________________ (१२) कृष्टिमें क्या अन्तर है इसे भी स्पष्ट करके बतलाया है। खुलासा इस प्रकार है-समान अविभाग - प्रतिच्छेदोंको धरने वाले अनन्त कर्मपरमाणओंकी एक वर्गणा होती है। यहां प्रत्येक परमाणका नाम एक वर्ग है । इनसे एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेदोंको धरनेवाले अनन्त कर्मपरमाणु ओंकी दूसरी वर्गणा होती है। इस प्रकार एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक होकर जो अनन्त वर्गणाएँ होती हैं वे सब वर्गण.एँ मिलकर एक स्पर्धक होता है । यह स्पर्धकका लक्षण है। परन्तु कृष्टिमें स्पर्धकका यह स्वरूप घटित नहीं होता, क्योंकि सबसे जघन्य जो कुष्टि होती है उसमें यद्यपि समान अविभाग प्रतिच्छेदोंको घरनेवाले अनन्त परमाणु होते है । परन्तु दूसरी कष्टि में एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेदोंको घरनेवाले अनन्त परमाणु न होकर नियमसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदोंको धरनेवाले अनन्त परमाणु होते हैं। इसी प्रकार तीसरी आदि सभी कृष्टियोंमें समझना चाहिए । इसलिए ही इनकी कृष्टि संज्ञा है । यह स्पर्धक और कृष्टि में अन्तर . है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। आगे १६६ संख्याक दुसरी मूल गाथा आई है। इस द्वारा सब कृष्टियोंके अनुभाग और स्थितिका विचार किया गया है। इसकी दो भाष्यगाथाएँ है। १६७ संख्याक प्रथम भाष्यगाथा द्वारा सभी कृष्टियाँ असंख्यात स्थितिविशेषोंमें और अनन्त अनुभाग विशेषोंमें पाई जाती हैं। मात्र वेद्यमान संग्रह कष्टिको कितनी अवयव कृष्टियाँ होती हैं उनका असंख्यात बहुभाग उदय स्थिति में पाया जाता है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए । अनुभागकी अपेक्षा एक-एक कृष्टि अनन्त अनुभागोंमें पाई जाती है । परन्तु जिन अनुभागोंमें एक कृष्टि होती है उनमें दूसरी कृष्टि नहीं रहती। १६८ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि सब संग्रह और अवयव कृष्टियां द्वितीय स्थितिमें होती है । मात्र यह जीव जिसका वेदन करता है उसका एक भाग प्रथम स्थितिमें होता है । शेष कथन प्रथम भाष्यगाथाके समान जानना चाहिए। १६९ संख्याक तीसरी मल गाथा प्रदेशपुंज, अनुभाग और काल की अपेक्षा होनाधिकपने का निर्देश करती है । प्रदेश पुंजका निर्देश करने रूप प्रथम अर्थ में पांच भाष्य गाथाएँ आई हैं । अनुभागका कथन करने रूप दसरे अर्थ में एक भाष्यगाथा आई है तथा कालका निर्देश करने रूप तीसरे अर्थ में छह भाष्यगाथाएँ आई हैं। १७० संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया है कि दूसरीसे प्रथम संग्रह कृष्टि में प्रदेशज संख्यातगुणा होता है। परन्तु दूसरीसे तीसरी आदि संग्रह कृष्टियाँ क्रमसे विशेष अधिक है। विशेष खुलासाके लिये मूलको देखिये। १७१ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रथम संग्रह कृष्टि वर्गणा समूहकी अपेक्षा संख्यात गुणो है। किन्तु दूसरी संग्रह कृष्टिसे तीसरी संग्रह कृष्टि वर्गणा समूहको अपेक्षा विशेष अधिक है। इसी प्रकार मान आदिकी संग्रह कृष्टियां भी वर्गणा समूहकी अपेक्षा विशेष अधिक होती हैं। १७२ संख्याक तोसरी भाष्यगाथामें वर्गणाको ध्यानमें रखकर अनुभाग और प्रदेशपुंजकी अपेक्षा अस्पबहत्वका निर्देश किया गया है । बतलाया है कि वर्गणा अनुभागकी अपेक्षा हीन होती है वह प्रदेश पुंजकी अपेक्षा अधिक होती है। १७३ संख्याक चौथी भाष्य गाथा बतलाया है कि क्रोधकी आदि वर्गणामें से उसीको अन्तिम वर्गणाके घटानेपर जो अनन्तवाँ भाग लब्ध आता है वह शुद्ध शेषका प्रमाण होता है। अर्थात् अन्तिम वर्गणासे आदि वर्गणामें उतना प्रदेशपुंज अधिक होता है। १७४ संख्याक पांचवीं भाष्यागाथामें बतलाया है कि कृष्टियोंके विषयमें जो क्रम क्रोधसंज्वलनमें स्वीकार किया गया है वही क्रम मान, माया और लोभके विषय में भी समझना चाहिये ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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