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________________ २९२ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे संघीसु णाणावरणाविकम्माणं लिविबंध-ट्रिविसंतकम्मपमाणाणुगमो सुगमो ति ण परूविदो । एवम्मि पुण मायावेदगचरिमसंघीए तिण्हं धादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो वासपुधत्तमेत्ता, दोपुव्वुत्तसंधिविसर्टिदिबंधादो जहाकममोवट्टिदूण मासपुषत्तमेतो संवुत्तो। अघादिकम्माणं पि तप्पाओग्गसंखेज्जवस्सपमाणो जइ वि सुत्ते मुत्तकंठमणुवइट्टो तो वि देसामासयभावेण सूचिदो बटव्यो। उभयेसि पि कम्माणं ट्ठिविसंतपमाणपरिक्खा सुत्तणिहिट्ठा सुगमा। एवमेत्तिएण परूवणापबधेण मायावेवगद्धमणुपालिय से काले लोभवेदगभावेण परिणममाणस्स जो परूवणापबंधो तण्णिणयकरणटुमुवरिमपबंधमाह * तदो से काले लोमस्स पढमकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । ६७२९. मायासंजलणस्स तिव्हं संगहकिट्टीणं वेदगद्धासु जहाकम परिसमत्तासु तदणंतरसमये लोभसंजलणकिट्टीओ वेवेदुमाढवेमाणो पुज्वमेव ताव पढमसंगहकिट्टीए पदेसग्गमोड्डियूण सगवेदगकालादो आवलियम्भहियं कादूण उदयादिगुणसेढिकमेण पढमट्ठिदिमेसो करेवि त्ति वुत्तं होदि। एसो पढमट्टिवी सयलवेदगडाए सादिरेयतिभागमेत्ती बादरलोभवेदगद्धाए च सादिरेयदुभागमेत्ता त्ति घेत्तव्वा । एवमेवीए पढमट्टिवीएलोभसंजलणपढमसंगहकिट्टि वेदेमाणस्स सव्वावासयेसु पुवुत्तो चेव विषो गिरवसेसमणुगंतव्यो ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ तथा सब सन्धियोंमें ज्ञानावरणादि कर्मोके स्थितिसत्कर्मोके प्रमाणका अनुगम सुगम है, इसलिए उनका यहाँ प्ररूपण नहीं किया है। परन्तु इस मायावेदकके अन्तिम सन्धिमें तीन घातिकर्मोका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण है जो दो पूर्वोत सन्धि-विषयक स्थितिबन्धसे क्रमसे घटकर मासपृथक्त्वप्रमाण हो गया है तथा अघाति कर्मोका भो तत्प्रायोग्य संख्यात वर्षप्रमाण यद्यपि सूत्र में मक्तकण्ठ नहीं कहा गया है तो भी देशामर्षकरूपसे सूचित किया गया जान लेना चाहिए। दोनों ही कर्मोके स्थितिसत्कर्मके प्रमाणको परीक्षा सूत्रनिर्दिष्ट और सुगम है इस प्रकार इतने प्ररूपणा प्रबन्धके द्वारा मायावेदक कालका पालन करके तदनन्तर समयमें लोभवेदक कालरूपसे परिणमन करनेवाले क्षपक जीवका जो प्ररूपणाप्रबन्ध है उसका निर्णय करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * उसके बाद अनन्तर समयमें लोभको प्रथम कृष्टिमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। 5७२९. मायासंज्वलनको तीनों संग्रहकृष्टियोंके वेदककालोंके क्रमसे समाप्त होनेपर तदनन्तर समय में लोभसंज्वलनकी कृष्टियोंका वेदन करनेके लिए आरम्भ करता हुआ पहले ही सर्व-प्रथम प्रथम संग्रहकृष्टिके प्रवेशपुंजका अपकर्षण करके तथा अपने वेदक कालसे एक आवलि अधिक करके उदयादि गुणश्रेणीरूपसे यह क्षपक जीव प्रथम स्थितिको करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यह प्रथम स्थिति सम्पूर्ण वेदक कालके साधिक तीसरे भागप्रमाण होती है और बादर लोभवेदक कालके साधिक द्वितीय भागप्रमाण होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार इस प्रथम स्थितिको लोभसंज्वलनसम्बन्धी प्रथम सग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके सभी आवासकोंमें पूरी पूर्वोक्त विधि हो जाननी चाहिए इस बातका कथन करते हए आगेके सूत्रको कहते हैं
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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