SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खवगसेढोए अण्णा परूवणा २२५ * दोणि णिन्लेविन्जंति विसेसाहिया । ५६६. जे दो-दो समयपबद्धा भवबद्धा वा एगसमएण णिल्लेविदा ति अदीदकाले सव्वत्थ जहासंभवमुच्चिणिदूण गहिदा पुविल्लेहितो विसेसाहिया त्ति वुत्तं होइ । विसेसपमाणमत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागियं, एत्थतणगुणहाणिअद्धाणस्स तप्पमाणत्तादो। * तिणि पिल्लेविज्जति विसेसाहिया । 5५६७. जे तिण्णि-तिणि णिल्लेविदा भवबद्धा समयपबद्धा वा ते अदीदकाले सम्वत्थ समुच्चिवसरूवा अणंतरहेट्ठिमवियप्पसलागाहितो विसेसाहिया त्ति भणिदं होइ । - * एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागे दुगुणा । ६५६८. एवमट्टिदेगेगविसंसपडिवडोएं गंतूण पलिदोवमरस असंखेज्जविभागमेत्तद्धाणे दुगुणवड्डी समुप्पज्जदि त्ति वुत्तं होइ। एवं दुगुणवडिवा दुगुणवड्डिदा जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतीओ दुगुणवडीओ गंतूर्ण तदित्यवियप्पे जवमझ समुप्पण्णं ति तत्तो उवरि विसेसहीणकमेण असंखेज्जाओ गुणहाणोओ गंतूण सव्वुक्कस्सपलिदोवमासंखेजभागमेत्त. भवसमयपबद्धसलागाओ घेत्तूण पयदजवमझपख्वणाए चरिमवियप्पो होइ। एत्थ जवमझहेट्रिमसयलद्धाणादो उवरिमसयलद्धाणमसंखेज्जगुणं, हेटिमदगुणवडिसलागाहितो उवरिमदुगुण * जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध दो-दो करके निर्लेपित किये गये हैं वे विशेष अधिक होते हैं। ६५६६. जो दो-दो समयप्रबद्ध या भवबद्ध निर्लेपित किये गये हैं वे अतीतकालमें सर्वत्र यथासम्भव एकत्रित करके ग्रहण किये गये पहलेकी अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर विशेष भाग पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभाग प्रमाण है, क्योंकि यहाँका गुणहानि अध्वान तत्प्रमाण है। जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध तीन-तीन करके निलंपित किये गये हैं वे विशेष अधिक होते हैं। १५६७. जो भवबद्ध या समयपबद्ध तीन-तीन निर्लेपित किये गये हैं वे अतीत काल में सर्वत्र एकत्रित किये गये अनन्तर अधस्तन भेदोंकी शलाकाओंसे विशेष अधिक होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * इस प्रकार एक-एक अधिकके क्रमसे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमें वे दूने हो गये हैं। १५६८. इस प्रकार अवस्थित एक-एक विशेषको परिवृद्धिसे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानके प्राप्त होनेपर दूनी वृद्धि उत्पन्न होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार द्विगुणवृद्धि-द्विगुणवृद्धि होती हुई पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां जाकर वहां प्राप्त हुए विकल्पमें यवमध्य उत्पन्न होता है। पुनः उससे आगे विशेषहीनके क्रमसे असंख्यात द्विगुणहानियां जाकर सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण भवबद्ध और समयप्रबद्ध शलाकाओंको ग्रहण कर प्रकृत यवमध्य प्ररूपणामें अन्तिम विकल्प होता है। यहाँपर यवमध्यके अधस्तन समस्त अध्वानसे उपरिम पूरा अध्वान असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि अषस्तन द्विगुण१. ता. आ. प्रत्योः -पडिवत्तीए । २९
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy