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________________ खवगसेढोए सेसमयएसु किट्टीट्ठाणेसु दिज्जमाणपदेसपरूवणा * जं पुण विदियसमए दीसदि किट्टीसु पदेसग्गं तं जहणियाए बहुअं, सेसासु सव्वासु अणंतरोवणिधाए अणंतभागहीणं । ६९६. जहा दिज्जमाणपदेसग्गस्स उट्टकूडागारेण णिसेगविण्णासो जादो ण तहा दिस्समाणगस्स पदेसग्गस्स; किंतु जहण्णियाए किट्टीए बहुअं होदूग सेसासु सव्वासु किट्टीसु जहाकममणंतराणंतरादो अणंतभागहाणीए चेव दिस्समाणपदेसग्गस्सावट्ठाणं होइ, पयारंतरपरि• हारेणेगेगवग्गणविसेसहाणिपदेसग्गावट्ठाणस्स तत्थ परिप्फुडमुवलंभादो। एवमेत्तिएण पबंधेण विदियसमए दिज्जमाण-दिस्समाणपदेसगस्त सेढिपरूवणं समाणिय संपहि तदियादिसमएसु वि एवं चेव सेढिपरूवणा कायव्वा त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह___* जहा विदियसमए किट्टीसु पदेसग्गं तहा सव्विस्से किट्टीकरणद्धाए दिजमाणगस्स पदेसग्गस्स तेवीसमुट्टकूडाणि । ६९७. जहा विदियसमए विज्जमाणपदेसग्गरस तेवीसमुट्टकूडाणि जावाणि तहा सविस्से चेव किट्टीकरणद्धाए परूवेयवाणि, विसेसाभावादो त्ति भणिदं होइ। ६९८. संपहि दिस्समाणयं सम्वत्थोवाणंतभागहाणीए एयगोवुच्छायारेण वटव्वं, तत्य पयारंतरासंभवो' त्ति जाणावणमत्तरसुत्तावपारो * पुनः दूसरे समयमें कृष्टियोंमें जो प्रदेशपुंज दिखाई देता है वह जघन्य कृष्टि में बहुत होता है, शेष सब कृष्टियोंमें अनन्तरोपनिषाको अपेक्षा अनन्त भागहीन होता है। ६९६. जिस प्रकार दोयमान प्रदेशपुंजका उष्ट्रकूटके आकारके समान निषेक विन्यास हो जाता है, दिखनेवाले प्रदेशपुंजका उस प्रकारसे प्रदेशविन्यास नहीं होता है। किन्तु जघन्य कृष्टिमें बहुत होकर शेष सभी कृष्टियों में यथाक्रम अनन्तर-अदनन्तररूपसे अनन्त भागहानि होकर ही दिखनेवाले प्रदेशपुंजका अवस्थान होता है, क्योंकि प्रकारान्तरपनेके परिहार द्वारा एक-एक वर्गणा विशेष की हानि होकर प्रदेशपुंजका अवस्यान वहाँपर स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा दूसरे समय में दोयमान और दिखनेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा समाप्त करके अब तीसरे आदि समयों में भी इसी प्रकार श्रेणिप्ररूपणा करनी चाहिए इस बातका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं .* जिस प्रकार दूसरे समयमें कृष्टियों में दीयमान प्रदेशपुंजको प्ररूपणा की है उसी प्रकार समस्त कृष्टिकरणके कालमें दीयमान प्रदेशपुंजको प्ररूपणा करनेपर तेईस उष्ट्रकूट होते हैं। ६९७. जिस प्रकार दूसरे समयमें दोयमान प्रदेशपुंजके तेईस उष्ट्रकूट हो जाते हैं उसी प्रकार पूरे कृष्टिकरणके कालमें कथन करना चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कथनसे इसमें कोई विशेषता नहीं है यह उक्त कथनका तासर्य है। . विशेषार्थ-कुल सन्धिस्थान तेईस हैं, इसलिए दूसरे समय में जिस प्रकार दीयमान प्रदेशपुंजको तेईस उष्ट्रकूटश्रेणियां हो जाती हैं उसी प्रकार आगे भो कृष्टिकरणका जितना काल शेष रहा है उसके प्रत्येक समय में दीयमान प्रदेशपुंजको उष्ट्रकूटके समान रचना जान लेनी चाहिए। ६९८. अब दिखनेवाला प्रदेशपुंज सर्वत्र अनन्त भागहानि द्वारा एक गोपुच्छाके आकारसे सबसे स्तोक जानना चाहिए, वहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं है इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेके सूत्रका अवतार हुआ है१. ता. प्रती-संभवादो इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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