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________________ ७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * विदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । $ २०१. माणस्स विदियसंगहकिट्टीए पदेसपिडो तस्सेव पढमसंगहकिट्टीए पदेसपिडादो विसेसाहिओ त्ति सुत्तत्थसंबंधो। कुदो एदस्स तत्तो विसेसाहियत्तमवगम्मदे ? ण, तिव्वयराणुभागपरिणदपदेसपिडादो मंवयराणुभागपरिणदपदेसपिंडस्स तहामावसिद्धीए णाइयत्तादो । एत्थ विसेसाहियपमाणं हेटुिमदव्वस्सासंखेज्जविभागमेत्तमिदि घेत्तव्वं । तस्स पडिभागो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। * तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । . ६२०२. एत्य वि विसेसपमाणं हेट्ठिमदव्वस्सासंखेज्जदिभागमैत्तमिदि घेत्तव्वं । संपहि एक्स्सेव विसेसाहियभावस्स फुडीकरण?मेत्थ को पडिभागो त्ति आसंकाए उत्तरसत्तमाह * विसेसो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागो। ६२०३. जो एसो सत्थाणे विसेसो परूविदो सो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेण हेटुिमदव्वे खंडिदे तत्थेयखंडमेतो ति वुत्तं होइ। एवमुवरिमपदेसु वि विसेसाहियप्पमाणमेदेणेव पडिभागेण परवेयव्वं । णवरि परत्थाणविसेसो सम्वत्थावलियाए असंखेजविभागपडिभागिओ गहेयव्वो, तत्थ पयडिविसेसेण विसेसाहियत्तं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। * उससे दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रवेशपुंज विशेष अधिक है। ६२०१ मानसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपिण्ड उसोको प्रथम संग्रह कृष्टिके प्रदेशपिण्डसे विशेष अधिक है यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। शंका-मानको यह संग्रह कृष्टि उसीकी प्रथम संग्रह कृष्टिसे विशेष अधिक है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि तीव्रतर अनुभागसे परिणत प्रदेशपिण्डसे मन्दतर अनुभागसे परिणत प्रदेशपिण्डकी उस रूपसे सिद्धि होना न्यायप्राप्त है। यहाँपर विशेषाधिकका प्रमाण अधस्तन द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । उसका प्रतिभाग पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। * उससे तीसरी संग्रहकृष्टिका प्रवेशपुंज विशेष अधिक है। ६२०२ यहां भी विशेषका प्रमाण अधस्तन द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब इसी विशेषाधिकपनेका स्पष्टीकरण करनेके लिए यहाँपर क्या प्रतिभाग है ऐसो आशंका होनेपर आगेके सूत्रको कहते हैं विशेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यात भागका प्रतिभागी है। 5२०३. जो यह स्वस्थानमें विशेषका प्रमाण कहा है वह पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधस्तन द्रव्यके भाजित करनेपर उसमें से एक भागप्रमाण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार उपरिम पदोंमें भी विशेष अधि प्रमाणकको इसी प्रतिभागके अनुसार कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि परस्थानसम्बन्धी विशेषका प्रमाण सर्वत्र आवलिके असंख्यातवें भागका प्रतिभागी ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वहाँपर प्रकृतिविशेषको अपेक्षा विशेष अधिकपनेको छोड़कर प्रकारान्तर असम्भव है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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